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________________ २२० = अर्थात् इन्धन को प्राप्त कर, नामोदय के उदय से जो दीप्त होती है वह द्रव्य अग्नि है। २१४७.दव्वाइसन्निकरिसा, उप्पन्नो ताणि चेव डहमाणो। दव्वग्गि त्ति पवुच्चइ, आदिमभावाइजुत्तो वि॥ द्रव्य तथा पुरुष के पराक्रम के समायोग से उत्पन्न तथा काष्ठ आदि द्रव्यों को जलाने वाली द्रव्याग्नि होती है। यद्यपि वह आदिमभाव अर्थात् औदयिकभाव अग्निनामकर्मोदय तथा पारिणामिक भाव से युक्त होती है, फिर भी वह द्रव्य अग्नि कहलाती हैं। (द्रव्य से उत्पन्न अथवा द्रव्यों का दहन करने वाली द्रव्याग्नि।) २१४८.सो पुण इंधणमासज्ज दिप्पती सीदती य तदभावा। नाणत्तं पि य लभए, इंधण-परिमाणतो चेव॥ वह द्रव्याग्नि इंधन को प्राप्त कर दीप्त होती है, और उसके अभाव में बुझ जाती है। इंधन और उसके परिमाण के आधार पर वह विशेषता को प्राप्त होती है। (इंधन से जैसे-- तृणाग्नि, काष्ठाग्नि आदि और परिमाण से जैसे-महान् तृण के आधार पर महान् अग्नि और अल्प के आधार पर अल्प अग्नि ) २१४९.भावम्मि होइ वेदो, इत्तो तिविहो नपुंसगादीओ। जइ तासि तयं अत्थी, किं पुण तासिं तयं नत्थी॥ वेद भावाग्नि है। वह तीन प्रकार का है-नपुंसक वेद आदि। यदि साध्वियों में वह हो तो अग्नि का दृष्टांत सफल होता है। परंतु उनमें वह नहीं होता तो फिर वह दृष्टांत कैसे लागू होगा। २१५०.उदयं पत्तो वेदो, भावग्गी होइ तदुवओगेणं। भावो चरित्तमादी, तं डहई तेण भावग्गी॥ यदि स्त्रीवेद का उदय हो और उसका उपयोग अर्थात् पुरुष की अभिलाषारूप निमित्त मिले तो वह भावाग्नि होती है। भाव है चारित्र आदि का परिणाम। उस भाव को वह जलाती है, इसलिए भावाग्नि कही जाती है। २१५१.जह वा सहीणरयणे, भवणे कासइ पमाय-दप्पेणं। डझंति समादित्ते, अणिच्छमाणस्स वि वसूणि॥ २१५२.इय संदसण-संभासणेहिं संदीविओ मयणवण्ही। ___ बंभादीगुणरयणे, डहइ अणिच्छस्स वि पमाया॥ रत्नों से परिपूर्ण अपने स्वाधीन भवन में प्रमाद या दर्प से अग्नि प्रदीप्त हो जाती है तो गृहस्वामी के न चाहने पर भी रत्न जल जाते हैं। इसी प्रकार परस्पर अवलोकन, बातचीत से मदनाग्नि प्रदीप्त हो जाती है और साधु-साध्वी के न चाहने पर भी प्रमादवश वह अग्नि ब्रह्मचर्य आदि गुणरत्नों को जला डालती है। =बृहत्कल्पभाष्यम् २१५३.सुक्खिंधण-वाउबलाऽभिदीवितो दिप्पतेऽहियं वण्ही। दिदिधण-रागानिलसमीरितो ईय भावग्गी॥ जैसे शुष्क इन्धन वाली अग्नि वायुबल से अभिदीप्त होकर अधिक दीप्त हो जाती है, वैसे ही दृष्टिरूपी इन्धन वाली अग्नि रागरूप अनिल के द्वारा उद्दीपित होकर भावाग्नि भी अत्यधिक दीप्त हो जाती है। २१५४.लुक्खमरसुण्हमनिकामभोइणं देहभूसविरयाणं। सज्झाय-पेहमादिसु, वावारेसुं कओ मोहो॥ शिष्य का प्रश्न था कि जो साधु-साध्वी रूक्ष, अरस, अनुष्ण तथा परिमित भोजन करने वाले होते हैं और वे शरीर की भूषा से विरत तथा स्वाध्याय और प्रत्युपेक्षण आदि कार्यों में व्याप्त होते हैं, उनके मोह-वेद का उदय कैसे संभव हो सकता है? २१५५.नियणाइलुणणमद्दण, वावारे बहुविहे दिया काउं। सुक्ख सुढिया वि रत्तिं, किसीवला किं न मोहंति॥ कृषक दिन में निदान, लवन, मर्दन आदि बहुविध कार्यों में व्याप्त होते हैं। वे शुष्क और श्रान्त हो जाते हैं। क्या वे रात्री में मोहग्रस्त नहीं होते? होते ही हैं। २१५६.जइ ताव तेसि मोहो, उप्पज्जइ पेसणेहिं सहियाणं। अव्वावारसुहीणं, न भविस्सइ किह णु विरयाणं॥ यदि विविध कार्यों से युक्त कृषक भी मोहग्रस्त होते हैं तो विरत व्यक्तियों-मुनियों के जो व्यापार से मुक्त हैं, सुखी हैं, उनके मोह का उदय क्यों नहीं होगा? २१५७.कोई तत्थ भणिज्जा, उप्पन्ने संभिउं समत्थो ति। सो उ पभू न वि होई, पुरिसो व घरं पलीवंतो॥ कोई कह सकता है कि मोह के उदित होने पर भी मैं उसका निरोध कर सकता हूं। गुरु कहते हैं-समय पर वह निरोध करने में समर्थ न हो तो पुरुष की भांति वह अपने घर को जला डालता है। २१५८.कामं अखीणवेदाण होइ उदओ जहा वदह तुब्भे। तं पुण जिणामु उदयं, भावण-तव-नाणवावारा।। २१५९.उप्पत्तिकारणाणं, सब्भावम्मि वि जहा कसायाणं। न ह निग्गहो न सेओ, एमेव इमं पि पासामो॥ शिष्य ने कहा-भंते! आपने जो कहा, हमने उसे अवधारित कर लिया। अपने कहा कि जिनका वेद क्षीण नहीं हुआ है, उनके मोहोदय होता है। हम भावना, तप तथा ज्ञान की प्रवृत्तियों से मोहोदय पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। मोहोदय के उत्पत्ति कारणों के सद्भाव में भी, जैसे कषायों का निग्रह श्रेयान नहीं है-ऐसा नहीं है किन्तु वह श्रेयस्कर ही है, इसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग को भी देखते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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