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पीठिका = ७६१. विदु जाणए विणीए, उववाए जो उ वट्टए गुरूणं। जो कहा गया है, वह यहां भी कहना चाहिए। गाणंगणिक के
तविवरीयऽविणीए, अदिंत चिंते अ लहु-गुरुगा॥ विषय में आगे कहूंगा। विद्वान ज्ञायक विनीत होता है। वह गुरु के उपपात अर्थात् ७६८. छम्मास अपूरित्ता, गुरुगा बारससमासु चउलहुगा। आज्ञा-निर्देश में रहता है। उसको यदि सूत्र की वाचना नहीं दी तेण परं मासलहू, गाणंगणि कारणे भइतो॥ जाए तो चतुर्लघु और अर्थ की वाचना न दी जाए तो चतुर्गुरु उपसंपन्न मुनि छह मास को पूरा किए बिना एक गण का प्रायश्चित्त आता है। इसके विपरीत जो अविनीत है, उसको से दूसरे गण में जाता है तो उसे चार गुरुक का तथा यदि सूत्र की वाचना दी जाती है तो चतुर्लघु और अर्थ की वाचना पश्चात् बारह वर्षों को पूरा किए बिना यदि गाणंगणिक दी जाती है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है।
होता है तो चतुर्लघु, फिर गाणंगणिक होने पर मासलघु का ७६२. तितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए अ दुब्बलचरित्ते। प्रायश्चित्त विहित है। गाणंगणिकत्व ज्ञान, दर्शन, चारित्र में
आयरियपारिभासी, वामावट्टे य पिसुणे य॥ से किसी कारण के समुत्पन्न होने पर किया जाता है, यह ७६३. आदीअदिट्ठभावे, अकडसमायारि तरुणधम्मेय। मान्य है।
गब्विय पइण्ण निण्हइ, छेअसुए वज्जए अत्थं॥ ७६९. मूलगुण उत्तरगुणे, पडिसेवइ पणगमाइ जा चरिमं। निम्नोक्त मुनियों को छेदसूत्र के अर्थ की जानकारी न दे
धिइ-वीरियपरिहीणो, दुब्बलचरणो अणट्ठाए। तिन्तिणिक, चलचित्त, गाणंगणिक, दुर्बलचारित्री, आचार्य- जो धृति और वीर्य से परिहीन तथा दुर्बलचारित्री है, वह परिभाषी, वामावर्त्त, पिशुन, आद्यदृष्टभाव, अकृत- बिना किसी पुष्ट आलंबन के मूल और उत्तरगुण विषयक सामाचारीक, तरुणधर्मा, गर्वित, प्रकीर्णक, और निह्नवी। अपराधों की प्रतिसेवना करता है, जिनका जघन्य प्रायश्चित्त (व्याख्या आगे)
है पांच दिन-रात का तथा उत्कृष्ट प्रायश्चित्त है चरम ७६४. डझंतं तिंबुरुदारुयं व दिवसं पि जो तिडितिडेइ। अर्थात् पारांचिक, ऐसे साधु को छेदसूत्र की अर्थ-वाचना
अह दव्वतिंतिणो भावओ उ आहारुवहि-सेज्जा। नहीं देनी चाहिए। तिंबुरुक वृक्ष की लकड़ी जब जलती है तब बट्-त्रट ऐसे ७७०. पंचमहव्वयभेदो, छक्कायवहो अ तेणऽणुन्नाओ। शब्द करती है। इसी प्रकार गुरु द्वारा उपालब्ध शिष्य सुहसील-ऽवियत्ताणं, कहेइ जो पवयणरहस्सं।। दिनभर 'बट-बट्' की आवाज करता रहता है। वह द्रव्य जो आचार्य प्रवचनरहस्य अर्थात् छेदसूत्रों का अर्थ तिन्तिणिक है। भाव तिन्तिणिक के तीन प्रकार हैं-आहार सुखशील और अव्यक्त शिष्यों को बताते हैं. वे पांच महाव्रतों विषयक, उपधि विषयक तथा शय्या-वसति विषयक। के भेद तथा षट्जीवनिकाय के वध के अनुज्ञापक होते हैं। ७६५. अंतो-बहिसंजोअण, आहारे बाहि खीर-दधिमाई। ७७१. निस्साणपदं पीहइ, अनिस्साणविहारयं न रोएइ।
अंतो उ होइ तिविहा, भायण हत्थे मुहे चेव॥ तं जाण मंदधम्म, इहलोगगवेसगं समणं॥ आहार विषयक संयोजना दो प्रकार की होती है-अन्तर् तुम उस श्रमण को मंदधर्मा और इहलोकगवेषक जानो और बाहिर। बहिर होती है-दूध, दही आदि में लोलुपता वश जो निश्राणपद-अपवाद पद की स्पृहा करता है तथा जिसे उसमें कुछ मिलाना। अन्तर् संयोजना के तीन प्रकार अनिश्राणविहारिता रुचिकर नहीं लगती। हैं-भाजन विषयक, हाथ विषयक तथा मुख विषयक। ७७२. डहरो अकुलीणो त्ति य, दुम्मेहो दमग मंदबुद्धि त्ति। ७६६. एमेव उवहि सेज्जा, गुणोवगारी उ जस्स जं होइ। अवि अप्पलाभलद्धी, सीसो परिभवइ आयरियं॥
सो तेण जायेयंतो, तदभावे तिंतिणो होइ॥ कोई शिष्य आचार्य को बालक, अकुलीन, दुर्मेधाइसी प्रकार उपधि और शय्या विषयक संयोजना जाननी मंदप्रज्ञ, द्रमक-दरिद्र, मंदबुद्धि, अल्पलाभलब्धि आदि-आदि चाहिए। जिसके लिए जो गुणोपकारी होता है, वह उस वस्तु कहकर उनका परिभव करता है। की उसी के साथ संयोजना करता है। उसके अभाव में वह ७७३. सो वि य सीसो दुविहो, पव्वावियगो अ सिक्खओ चेव। उस विषयक तिन्तिणिक हो जाता है।
सो सिक्खओ अ तिविहो, सुत्ते अत्थे तदुभए य॥ ७६७. चलचित्तो भावचलो, उस्सग्गऽववायतो उ जो पुव्विं। वैसा शिष्य भी दो प्रकार का होता है-प्रव्रजित तथा
भणितो सो चेव इहं, गाणंगणियं अतो वोच्छं॥ शिक्षक। शिक्षक-गच्छान्तर से आया हुआ मुनि। उसके तीन चलचित्त यहां भावचल के रूप में गृहीत है। उत्सर्ग और प्रकार हैं-सूत्र के लिए समागत, अर्थ के लिए समागत अथवा अपवाद के आधार पर पूर्व में अचंचलद्वार (गाथा ७५५) में सूत्रार्थ के लिए समागत।
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