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=बृहत्कल्पभाष्यम्
७५०. दिति पणीयाहारं, न य बहुगं मा हु जग्गतोऽजिण्णं। ७५६. तेणे सावय ओसह, खित्ताई वाइ सेहवोसिरणे।
मोआइनिसग्गेसु अ, बहुसो मा होज्ज पलिमंथो॥ आयरिय-बालमाई, तदुभयछेए य बिहयपयं॥ आचार्य उसको प्रणीत आहार दे, जिससे कि वह चोर के भय से, श्वापद के भय से, आगाढ़रोगी को दृष्टिवाद आदि के सूत्रार्थों की अनुप्रेक्षा कर सके। उसको औषधि देने के लिए, क्षिप्तचित्त आदि के कारण, वादी का प्रणीत आहार बहुमात्रा में न दे। उसकी अधिक मात्रा से रात निग्रह करने के लिए, शैक्ष का व्युत्सर्जन करने के लिए में सूत्रार्थ के निमित्त जागते रहने के कारण अजीर्ण रोग होने आचार्य-बाल आदि के लिए तथा 'तदुभयच्छेद'-सूत्र और की संभावना रहती है। इसलिए वे उसे अल्पमात्रा में प्रणीत अर्थ-दोनों के व्यवच्छेद की स्थिति में इन सारे स्थानों में आहार देते हैं। रूक्षाहार से कायिकी का निस्सरण अधिक अपवादपद में चारों प्रकार की चंचलताएं विहित हैं। होता है, उससे पलिमंथ अर्थात् सूत्रार्थ का व्याघात होता है। ७५७. दुविहो लिंग विहारे, एक्केको चेव होइ दुविहोउ। स्निग्ध आहार से वैसा नहीं होता।
चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा। ७५१. गइ-ठाण-भास-भावे, लहुओ मासो उ होइ एक्कक्के। अनवस्थित दो प्रकार का है-लिंग अनवस्थित और
आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए॥ विहार अनवस्थित। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं। चार मास चंचल के चार प्रकार हैं-गतिचंचल, स्थानचंचल, भाषा- अनुद्घात (गुरुमास) तथा आज्ञाभंग आदि दोष। (व्याख्या चंचल तथा भावचंचल। इनमें प्रत्येक के एक-एक लघुमास आगे)। का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष, संयमविराधना तथा ७५८. गिहिलिंग अन्नलिंगं, जो उ करेई स लिंगओ दुविहो। आत्म-विराधना-ये होते हैं।
चरणे गणे अ अथिरो, विहारअणवट्ठिओ एस॥ ७५२. दावद्दविओ गइचंचलो उ ठाणचवलो इमो तिविहो। जो साधु गृहलिंग-गृहस्थ का वेष, अथवा अन्यतीर्थिकों
कुड्डादऽसई फुसइ व, भमइ व पाए व विच्छुभइ। का वेष करता है वह दोनों प्रकार के लिंग से अनवस्थित है। जो द्रावद्रविक-अत्यंत द्रुतगामी होता है, वह गतिचंचल जो चरण और गण में अस्थिर होता है, वह दोनों प्रकार से है। स्थानचंचल के तीन प्रकार हैं-भीत आदि का बार-बार विहार से अनवस्थित है। स्पर्श करने वाला, जो शरीर के अवयवों को घुमाता रहता है, ७५९. उग्गहण धारणाए, मेराए चेव होइ मेधावी। जो पैरों को बार-बार संकुचित करता है, फैलाता है।
तिविहम्मि अहीकारो, मेरासंजुत्तो मेहावी॥ ७५३. भासाचपलो चउहा, अस त्ति अलियं असोहणं वा वि। मेधावी के तीन प्रकार हैं-अवग्रहणमेधावी, धारणामेधावी
असभाजोग्गमसब्भं, अणूहिउं तं तु असमिक्खं॥ और मर्यादामेधावी। प्रस्तुत में तीनों प्रकार के मेधावियों में भाषाचपल के चार प्रकार हैं-असत्प्रलापी, असभ्यप्रलापी, मर्यादामेधावी का अधिकार है। जो मर्यादा से संयुक्त होता है, असमीक्षितप्रलापी, अदेशकालप्रलापी। असत् अर्थात् अलीक वह मर्यादामेधावी है। अथवा अशोभन-गर्व आदि से दूषित वचन बोलना। असभ्य ७६०. परिसाइ अपरिसाई, दव्वे भावे य लोग उत्तरिए। अर्थात् असभायोग्यवचन बोलना। बिना सोचे-समझे बोलना एकेको वि य दुविहो, अमच्च बडुईए दिटुंतो। असमीक्षितवचन है।
दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं-परिस्रावी और अपरिस्रावी। ७५४. कज्जविवत्तिं द8, भणाइ पुव्विं मए उ विण्णायं। दोनों के दो-दो प्रकार हैं। द्रव्यतः परिस्रावी और अपरिस्रावी ___ एवमिदं तु भविस्सइ, अदेसकालप्पलावी उ॥ तथा भावतः परिस्रावी और अपरिस्रावी। इनके दो-दो भेद
कोई कार्यविपत्ति कार्य के विनाश को देखकर कहता। हैं-लौकिक और लोकोत्तरिक। लौकिक भावतः परिस्रावी में है-'मैंने पहले ही वह जान लिया था कि यह कार्य ऐसा ही अमात्य का दृष्टांत तथा लौकिक भावतः अपरिस्रावी में होगा।' इस प्रकार कहने वाला अदेशकालप्रलापी होता है। बटुकी का दृष्टांत है। (लोकोत्तरिक भावतः परिस्रावी मुनि ७५५. जं जं सुयमत्थो वा, उद्दिष्टुं तस्स पारमप्पत्तो। पूछने पर अथवा न पूछने पर भी अपरिणत मुनि को
अन्नन्नसुयदुमाणं पल्लवगाही उ भावचलो॥ अपवादपद के रहस्य बता देता है। लोकोत्तरिक भावतः जो-जो श्रुत और अर्थ उद्दिष्ट है, उसका पार प्राप्त न कर परिस्रावी मुनि को छेदसूत्रों के रहस्य तथा अपवाद पदों के अन्यान्य श्रुतरूपी वृक्षों के यत्र-तत्र आलापकों को ग्रहण करता विषय में पूछने पर अपरिणत को कहता है-आज गोष्ठी में है, वह पल्लवग्राही होता है। वह है भावचपल या भावचंचल। चरण करण की प्ररूपणा विषयक चर्चा थी।) १. दोनों दृष्टांतों के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. ३७,३८।
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