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पीठिका
है तब तक अकाल, अस्वाध्यायिक तथा व्याक्षेप करने पर चार गुरुक का प्रायश्चित है।
७४०, गच्छो अ अलचीओ ओमाणं चेव अणहिवासा य गिहिणो अ मंदधम्मा, सुद्धं च गवेसए उबहिं ॥ यदि किसी आचार्य का पूरा गच्छ अलब्धिक है, उसका उस क्षेत्र विशेष में अपमान होता है, शिष्य शीत आदि परीषों को सहने में असमर्थ हैं, वहां के गृहस्थ मंदधर्मा हैं, 'शुद्ध उपधि की गवेषणा करनी चाहिए' यह भगवद् वाणी है । परन्तु वहां हर किसी को वैसी उपाधि प्राप्त नहीं हो सकती, तब दुर्मेधा लब्धिक मुनि को उत्सारकल्प द्वारा कल्पिक किया जाता है।
७४१. हिंडउ गीयसहाओ, सलद्धि अह ते हणंति से लद्धिं ।
तो एक्कओ वि हिंडइ, आयारुस्सारियसुअत्थो ॥ वह कल्पिक लब्धिमान् मुनि गीतार्थ मुनि के साथ वस्त्रैषणा के लिए घूमे। यदि उसकी लब्धि का हनन होता हो तो वह एकाकी घूमे। क्योंकि उसे आचारांग के अंतर्गत वस्त्रैषणा का सूत्रार्थ उत्सारकल्प द्वारा ग्रहण करवाया जा चुका है।
७४२, भिक्खु वह तरह बद्दल, अभागयेज्जो जहिं तहिं न पडे।
दुग-तिगमाईभेदे, पss तहिं जत्थ सो नत्थि ॥ पांच सौ व्यक्तियों का एक सार्थ जा रहा था। उस सार्थ के साथ एक रक्तपटवाला भिक्षु भी हो गया। सार्थ अटवी में प्रविष्ट हुआ। सभी तृषा से व्याकुल होने लगे दूर बावल बरस रहे थे। परंतु सार्थ पर वर्षा नहीं हो रही थी । वह भिक्षु निर्भागी था। वह पांच सौ व्यक्तियों के पुण्य का उपहनन कर रहा था। तब सार्थ को दो-तीन आदि भागों में बांट दिया। वह मिक्षु जिस भाग के साथ होता, वहां पानी नहीं बरसता, शेष सर्वत्र स्थानों में वर्षा होती। इस प्रकार दूसरों के पुण्य का उपहनन होता है।
७४३. भिक्खं वा वि अडतो, बिईय पढमाऍ अहव सव्वासु । सहिओ व असहिओ वा, उप्पाए वा पभावे वा ॥ भिक्षा के लिए घूमता हुआ अथवा पहली दूसरी पौरुषी में या सभी पौरुषियों में वस्त्रों के उत्पादन के लिए घूमे। वह गीतार्थ मुनि के साथ अथवा अकेला ही वस्त्रों का उत्पादन करे, लोगों को प्रभावित कर वस्त्रदान के लिए प्रेरित करे।
समोयरणहेउं ।
७४४. कालिय आणुओगम्मि गंडियाणं उस्सारिंति सुविहिया, भूयावायं न अन्नेणं ॥ जिस मुनि को अभी दृष्टिवाद पढ़ने की पर्याय प्राप्त नहीं है, जो कालिकश्रुतानुयोग से धर्मकथा कर रहा है, उसके
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लिए गंडिकाओं के समवतार के लिए सुविहित आचार्य भूतवाद अर्थात् दृष्टिवाद का उत्सारण करते हैं। अन्य किसी कारण से नहीं ।
७४५, सज्झायमसन्झाए सुद्धासुद्धे व उहिसे काले। दो दो अ अणोएसुं, ओएसु उ अंतिमं एक्कं ॥ ७४६. एगंतरमायंबिल बिगईए मक्खियं पि वज्जेति ।
जावइअं च अहिज्जइ तावइयं उद्दिसे केइ ॥ उत्सारकल्प में स्वाध्यायिक में अथवा अस्वाध्यायिक में. शुद्ध अथवा अशुद्ध काल में विवक्षितश्रुत का उद्देशन दे, उसमें व्याघात न करे। जिस अध्ययन के 'अनोज' अर्थात् सम उद्देशक हों, जैसे-दो, चार, छह, आठ आदि, वे दो-दो के आधार पर उद्दिष्ट करे तथा जिस अध्ययन के 'ओज' अर्थात् विषम उद्देशक हों तो अंतिम दिन एक ही उद्देशक उद्दिष्ट करे। वह एकान्तर आचाम्ल करे तथा विकृति से खरंटित का भी वर्जन करे। कुछ आचार्य कहते हैं जितने परिमाण में वह श्रुत का अध्ययन करे, उतने परिमाण में उसको उद्दिष्ट करे। (यदि कोई मेधावी शिष्य हो और वह अनेक अध्ययनों की अवगति कर लेता है तो उसे सारे अध्ययन उद्दिष्ट करें।)
७४७. आहारे उपकरणे, पडिलेहण लेव खित्तपडिलेहा |
अप्पाहारो परिहारे मोअ जह अप्पनिहो अ॥ जो उत्सारकल्प करने लग गया है उसके आहारग्रहण, उपकरण-प्रत्युपेक्षण, लेपग्रहण, क्षेत्रप्रत्युपेक्षा में व्याक्षेप नहीं करना चाहिए। उसके अल्पाहार हो वैसा प्रयत्न करना चाहिए। इस अल्पाहार से ही परिहार अर्थात संज्ञा तथा कायिकी अल्प हो सकती है। वह अल्पनिद्रा वाला हो, ऐसा प्रयत्न होना चाहिए।
७४८. हिंडाविंति न वा णं, अहवा अन्नट्टया न सो अडइ । पेहिंति व से उवहिं, पेहेइ व सो न अन्नेसिं ॥ आचार्य उस उत्सारकल्पिक को भिक्षा के लिए न भेजे। अथवा असंस्तरण हो तो उसे भेजा जा सकता है। वह दूसरों के प्रयोजन से कहीं नहीं जाता उसकी उपाधि की प्रत्युपेक्षा दूसरे साधु करते हैं। वह दूसरों की उपधि की प्रत्युपेक्षा नहीं
करता ।
७४९. एमेव लेवगहणं, लिंपइ वा अप्पणो न अन्नस्स ।
खेत्तं च न पेहावे, न यावि तेसोवहिं पेहे ॥ इसी प्रकार लेपग्रहण अर्थात् पात्रलेपन भी दूसरे मुनि करते हैं अथवा वह स्वयं अपने पात्र का लेपन करता है, दूसरे का नहीं। क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के लिए उसे न भेजे और न वह क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों की उपधि की प्रत्युपेक्षा करे ।
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