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के कारण सूत्रार्थ का योग होता है। शुश्रूषा का अवसर मिलता है। इसलिए क्रमशः अध्ययन करना चाहिए। ७२८. इय दोस- गुणे नाउं उक्कम कमओ अहिज्जमाणाणं । उभयविसेसविहिन्नू, को वंचणमब्भुवेज्जाहि ॥ इस प्रकार उत्क्रम तथा क्रमपूर्वक श्रुताध्ययन के क्रमशः दोष तथा गुणों को जानकर उभयविशेषविधिज्ञ मुनि, उत्सारकल्प करने कराने में कौन आत्मवंचना करेगा ? ७२९. जइ नत्थि कओ नामं, असइ हु अत्थे न होइ अभिहाणं । तम्हा तरस पसिद्धी अभिहाणपसिद्धि सिद्धा ।। यदि उत्सारकल्प नहीं है तो उसका नाम कहां से आया ? अविद्यमान द्रव्य का कोई अभिधान नहीं होता। अतः अभिधान की प्रसिद्धि से ही अर्थ द्रव्य की प्रसिद्धि सिद्ध होती है।
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७३०. जइ सव्वं वि व नामं, सत्थगं होज्ज तो भवे बोसो । जम्हा सअत्थगत्ते, सअत्थगत्ते, भजियं तम्हा अणेमंती ॥ यदि सारे नाम सार्थक हो तो हमारे द्वारा प्रस्तुत उत्सारकल्प नाम में दोष हो सकता है। नाम सार्थक भी होते हैं और निरर्थक भी उनमें भजना है। इसलिए यह अनेकांत है कि असदभूत अर्थ का अभिधान नहीं होता। सद्भूतार्थ का नाम होता है।
७३१. निकारणम्मि नाम, पि निच्छिमो इच्छिमो अ कज्जम्मि ।
उस्सारकप्पियस्स उ, चोयग ! सुण कारणं तं तु ॥ वत्स ! हम निष्कारण नाम भी नहीं चाहते। कारण अर्थात् प्रयोजन होने पर उत्सारकल्पिक का नाम और अर्थ की भी इच्छा करते हैं। तुम उस कारण को सुनो। ७३२. आधार विह्निवायत्यजाणए
पुरिस कारणविहिनू । संविग्गमपरितंते, अरिह उस्सारणं कार्ड ॥ जो आचारांग तथा दृष्टिबाद पर्यन्त आगमों का ज्ञाता है तथा जो यह जानता है कि यह पुरुष उत्सारकल्प के योग्य है। या नहीं तथा जो उत्सारकल्प करने के कारणों को जानता है, जो संविग्न है तथा जो सूत्रार्थ को ग्रहण करवाने में अपरिश्रान्त होता है, वही उत्सारणाकल्प करा सकता है, वही अहं होता है।
७३३. अभिगए पडिब संविगे अ सलदिए । अवद्विए अ मेहावी, मेहावी, पडिबुज्झी जोअकारए । अभिगत, प्रतिबद्ध, संविग्न, सलब्धिक, अवस्थित, मेधावी प्रतिबोधी और योगकारक ऐसा पुरुष ही उत्सारकल्पयोग्य होता है । (व्याख्या आगे ।) ७३४. सम्मत्तम्मि अभिगओ, विजाणओ वा वि अब्भुवगओ वा । सज्झाए पडिबद्धो गुरूसु नीएल्लएसुं वा ॥
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बृहत्कल्पभाष्यम्
अभिगत के तीन अर्थ है- सम्यक्त्व को अभिमुखता से प्राप्त, जीव- अजीव आदि तत्त्वों का विज्ञायक, 'गुरुसेवा नहीं छोडूंगा' - ऐसा अभ्युपगम करने वाला। प्रतिबद्ध के तीन अर्थ है स्वाध्याय के प्रति प्रतिबद्ध, गुरु के प्रति स्थिरममत्वानुबद्ध तथा ज्ञाती संयमियों के प्रति संजातप्रेमवाला । ७३५. संविग्नो दव्य मिओ, भावे मुलुत्तरेस उ जयंती।
लद्धी आहाराइसु, अणुओगे धम्मकहणे य॥ संविग्न के दो प्रकार हैं- द्रव्यसंविग्न और भावसंविग्न। द्रव्यसंविग्न है मृग जो सदा सर्वदा भयभीत रहता है। जो मूलगुण और उत्तरगुणों में यतमान है वह भावसंविग्न है। जो आहार आदि की लब्धि से युक्त है तथा जो अनुयोग देने और धर्मकथन में लब्धियुक्त है, वह सलब्धिक होता है। ७३६. लिंग बिहारेऽवडिओ, मेरामेहावि गहणओ भइओ ।
पडिबुज्झइ जं कत्थइ, कुणइ अ जोगं तदट्टुस्स ॥ अवस्थित के दो प्रकार हैं-लिंग से अवस्थित और विहार से अवस्थित जो लिंग को नहीं छोड़ता वह लिंगावस्थित है और जो संविग्न विहार को नहीं छोड़ता वह विहारावस्थित है। मेधावी के दो प्रकार हैं- ग्रहणमेधावी तथा मर्यादामेधावी । उत्सारकल्प में ग्रहणमेधावी की भजना है। जो कहे हुए को सारा जानता है वह प्रतिबोधी होता है। उसके लिए जो सूत्र उत्सारित किया जाता है, उसके अर्थ-ग्रहण में जो व्यापृत होता है, वह योगकारक है।
७३७. अभिगय बिर संविग्गे, गुरुअमुई जोगकारए चेव । दुम्मेहसलन्दीए, पडिबुज्झी परिणय विणीए ॥ ७३८. आयरियवण्णवाई, अणुकूले धम्मसलिए चेव ।
एतारिसे महाभागे, उस्सारं काडमरिहइ ॥ ( अन्य आचार्य के आधार पर उत्सारकल्पिक के गुण) अभिगत - प्रबुद्ध, स्थिर, संविग्न, गुरु को न छोड़ने वाला, योगकारक, दुर्मेधा होने पर भी सलब्धिक, प्रतिबोधी, परिणत, विनीत, आचार्य का वर्णवादी - गुणोत्कीर्तन करने वाला, अनुकूल, धर्मश्रद्धी, ऐसा महाभाग उत्सारकल्प कर सकता है।
७३९. अणभिगयमाइआणं, उस्सारिंतस्स चउगुरू होंति ।
उग्गहणम्मि वि गुरुगाऽकालमसज्झायऽवक्खेवे ॥ जो आचार्य इन गुणों से विपरीत गुणों वाले को उत्सारकल्प करवाते हैं तो वे प्रत्येक के लिए चार-चार गुरुमास प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। जो शिष्य अवग्रहण करने में समर्थ है, उसको यदि निष्कारण ही उत्सार किया जाता है तो भी चार गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा जब तक उत्सारकल्प किया जाता
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