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पीठिका अर्थात् वह आगाढ़ और अनागाढ़ विषयक विपर्यास करता आगमन हुआ। उन्होंने उत्सारकल्पिकों की खरंटना की और है। यह सारी संयम विराधना है।
उन्हें प्रायश्चित्त दिया। ऐसे कितने गीतार्थ मुनि होंगे जो इस ७१९. तुरियं नाहिज्जंते, नेव चिरं जोगजंतिता होति। प्रकार शिक्षा देंगे?
लद्धो महंतसद्दो, त्ति केइ पासाइं गेहंति॥ ७२४. अप्पत्ताण उ दिंतेण अप्पओ इह परत्थ वि य चत्तो। ७२०. कमजोगं न वि जाणइ, विगईओ का य कत्थ जोगम्मि। सो वि अ हु तेण चत्तो, जं न पढइ तेण गव्वेणं ।।
अण्णस्स वि दिति तहा, परंपरा घंटदिटुंतो॥ जो आचार्य अपात्र अर्थात् अयोग्य को अथवा अप्राप्तउत्सारकल्पिक शिष्य शीघ्र श्रुत का अध्ययन नहीं करते विवक्षित अनुयोगभूमिका की प्राप्ति से रहित शिष्य को श्रुत तथा वे योग-श्रुताध्ययन के समय किए जाने वाले तपोयोग का दान देता है तो उस आचार्य ने अपनी आत्मा को से चिरकाल तक नियंत्रित नहीं होते। हमें 'वाचक या गणी' उत्सारकल्पकृत बनाने के कारण इह और परत्र में परित्यक्त यह महान् शब्द प्राप्त हो चुका हैं यह सोचकर कुछेक शिष्य कर दिया है। निश्चित रूप से वह शिष्य भी उस आचार्य के आचार्य का साथ छोड़कर पार्श्ववर्ती गांवों में स्वच्छंदरूप में द्वारा परित्यक्त होता है क्योंकि वह गणि, वाचक आदि गर्व से विचरण करने लग जाते हैं। वे योगकर्म नहीं जानते। किस गर्विष्ठ होकर कुछ भी नहीं पढ़ता। पढ़ने के अभाव में चरणयोग में कितनी विकृतियां कल्पती हैं-यह भी नहीं जानते। वे करण की प्रतिपत्ति कैसे हो सकती है? अपने अन्य शिष्यों को भी उत्सारकल्प से ही वाचना देते हैं। (इसी प्रकार प्रवचन भी परित्यक्त हो जाता है। उस मुनि इस परंपरा से सूत्रार्थ का व्यवच्छेद होता है। यहां घंटा का के वाचकप्रवाद को सुनकर, कुछेक सुहृद् उसको दर्शन दृष्टांत वक्तव्य है।
विषयक अनेक प्रश्न पूछते हैं। उन प्रश्नों का समुचित ७२१. उच्छुकरणोव कोट्ठगपडणं घंटा सियालनासणया। समाधान न दे पाने के कारण लोग सोचते हैं-ओह ! इनका
विगमाई पुच्छ परंपराएँ नासंति जा सीहो। प्रवचन व्यर्थ है। इनके गच्छ में ऐसे वाचकपद पर अधिष्ठित ७२२. पडियरिउं सीहेणं, स हओ आसासिया मिगगणा य।। हैं, जो कुछ नहीं जानते। यह सोचकर कुछ व्यक्ति देशविरति,
_ इय कइवयाइं जाणइ, पयाणि पढमिल्लुगुस्सारी॥ कुछ सर्वविरति स्वीकार करने के इच्छुक भी विपरिणत ७२३. किं पि त्ति अन्नपुट्ठो, पच्चंतुस्सारणे अवोच्छित्ती। होकर प्रवचन को छोड़ देते हैं।)
गीताऽऽगमण खरंटण, पच्छित्तं कित्तिया चेव॥ ७२५. अज्जस्स हीलणा लज्जणा य गारविअकारणमणज्जे। एक इक्षुवाटक था। उसकी रक्षा के लिए 'उवक'
आयरिए परिवाओ, वोच्छेदो सुतस्स तित्थस्स॥ खातिका खोदी गई। एक बार उसमें एक सियार गिर गया। जो मुनि आर्य है और अभी तक उसे वाचक पद की इक्षुवाटक के स्वामी ने उसे पकड़कर उसके गले में घंटा योग्यता प्राप्त नहीं है, वह अपने लिए प्रयुक्त 'वाचक' पद से बांधकर उसे मुक्त कर दिया। उसे देखकर अन्य सियार हीलणा और लज्जा अनुभव करता है। और अनार्य के लिए भागने लगे। उन्हें भागते हुए देखकर भेड़ियों ने उनसे पूछा। वही वाचक शब्द गौरव का कारण बनता है। आचार्य का उत्तर सुनकर वे भी पलायन करने लगे। इस प्रकार एक- परिवाद होता है, तथा श्रुत और तीर्थ का व्यवच्छेद होता है। दूसरे को देखकर जंगल के सभी पशु भागने लगे। एक सिंह ७२६. पवयणवोच्छेए वट्टमाणो जिणवयणबाहिरमईओ। ने उनको भागने का कारण पूछा। सिंह ने छानबीन कर जान बंधइ कम्मरय-मलं, जर-मरणमणंतयं घोरं ।। लिया कि यह घंटासियार है। सिंह ने उसे मार कर सभी प्रवचन का व्यवच्छेद करने के लिए प्रवर्तमान तथा जिन
आरण्यक पशुओं को आश्वस्त कर उनको भयमुक्त कर वचन से बाह्यमतिवाला वह उत्सारकल्पिक वाचक अनंत जरादिया।
मरण का निमित्तभूत घोरकर्मरजोमल का बंधन करता है। इसी प्रकार प्रथम उत्सारिक शिष्य कुछेक सूत्रालापक ७२७. आणा विकोवणा बुज्झणा य उवओग निज्जरा गहणं। पदों को जानते हैं। उनके पास पढ़ने वाले कुछेक आलापकों गुरुवास जोग सुस्सूसणा य कमसो अहिज्जंते॥ को जान पाते हैं, अर्थ को नहीं। दूसरों के द्वारा पूछने पर वे क्रमपूर्वक सूत्र का अध्ययन करने पर ये गुण निष्पन्न होते कहते हैं यह भी कोई अंग-उपांग का श्रुत है। तुम हैं-तीर्थंकरों की आज्ञा की आराधना होती है, शिष्य का योगवहन करो। वे प्रत्यंत ग्राम में जाकर सूत्रार्थ का व्युत्पादन होता है, मंदबुद्धि शिष्य की भी प्रबुद्धता संपादित उत्सारण करते हैं। वे कहते हैं हम सूत्रार्थ की होती है, श्रुत में निरंतर उपयुक्तता होती है, इससे निर्जरा अव्यवच्छित्ति करते हैं। उसी ग्राम में गीतार्थ मुनियों का और श्रुतार्थ का सम्यक् ग्रहण होता है। गुरुकुलवास में रहने
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