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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ७११. छिज्जंते विन पावेज्ज कोइ मूलं अओ भवे अट्ठ। पूछा-फिर उत्सारकल्पिक का नाम कैसे सुना जाता है? चिरघाई वा छेओ, मूलं पुण सज्जघाई उ॥ आचार्य ने कहा-इस नाम से व्यवहार होता है, किन्तु पर्याय के छिन्न होने पर भी जब तक मूल प्रास नहीं उत्सारकरण अनुज्ञात नहीं है। जो उत्सार करता है उसका होता, तब उसके छह माह के छेद के पश्चात् मूल दिया प्रायश्चित्त है चार गुरुक तथा आज्ञाभंग आदि दोष। जाता है। इस प्रकार प्रायश्चित्त आठ हो जाते हैं। छेद ७१६. आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा संजमे य जोगे य। चिरघाती होता है और मूल सद्योघाती। यही दोनों में अप्पा परो पवयणं, जीवनिकाया परिच्चत्ता।। अंतर है। उत्सारकल्पिक भगवद् आज्ञा का पालन नहीं करता। ७१२. वूढे पायच्छित्ते, ठविज्जई जेण तेण नव होति। अन्यान्य आचार्य या शिष्य भी उत्सारकल्प करते हैं, इससे जं वसइ खित्तबाहिं, चरिमं तम्हा दस हवंति॥ अनवस्थादोष का प्रसंग आता है। वे मिथ्यात्व को प्राप्त हो किसी कारणवश द्वादश वार्षिक परिहारतपः प्रायश्चित्त जाते हैं। उनके संयम और योग विषयक विराधना होती है। वहन कर लेने के पश्चात् उसे व्रतों में स्थापित किया जाता तथा उत्सारक के आत्मा स्वजीव, पर-उत्सारकल्पविषय है। इस प्रकार अनवस्थाप्य के आधार पर प्रायश्चित्त के नौ शिष्य, प्रवचन-तीर्थ तथा जीवनिकाय-ये सारे परित्यक्त हो प्रकार हो जाते हैं। वही एकाकी क्षेत्र के बाहर रहता है, उसे जाते हैं। (यह द्वारगाथा है। व्याख्या आगे।) पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रायश्चित्तों की ७१७. पुव्विं मलिया उस्सारवायए आगए पडिमलिंति। संख्या दश हो जाती है। पडिलेह पुग्गलिंदिय, बहजण ओभावणा तित्थे। ७१३. एयं दुवालसविहं, जिणोवइ8 जहोवएसेणं। पहले किसी जैनाचार्य ने अन्ययूथिकों का मानमर्दन किया जो जाणिऊण कप्पं, सद्दणाऽऽयरणयं कुणइ॥ था। एक बार उत्सारवाचक वहां आए तब अन्ययूथिकों ने ७१४. सो भविय सुलभबोही परित्तसंसारिओ पयणुकम्मो। जैनों का मानमर्दन किया। पहले उन्होंने गुप्तरूप से एक अचिरेण उ कालेणं, गच्छइ सिद्धिं धुयकिलेसो॥ प्रत्युपेक्षक पुरुष को उत्सारकल्पक के पास भेजकर उनके इस प्रकार जिनोपदिष्ट ये बारह प्रकार के कल्प साधु- ज्ञान की परीक्षा ली। पूछा-पुद्गल के कितनी इन्द्रियां होती सामाचार हैं। इनको यथोपदिष्टरूप में जानकर जो कल्पों पर। हैं? उसने कहा-पांच। बहुत लोगों के बीच निरुत्तर किया। श्रद्धा करता है, उनका आचरण करता है, वह भव्य, सुलभ- तीर्थ की अपभ्राजना हुई। (यह श्लोक का शब्दार्थमात्र है। पूरा बोधि, परीत्तसंसारी, प्रतनुकर्मा जीव अचिरकाल (उसी भव कथानक इस प्रकार है।)? अथवा सात-आठ भवों) में कर्मों का अपनयन कर सिद्धगति ७१८. जीवा-ऽजीवे न मुणइ, अलियभया साहए दग-मिताई। को प्रास कर लेता है। करणे अ विवच्चासं, करेइ आगाढऽणागाढे॥ ७१५. चोयग पुच्छा उस्सारकप्पिओ नत्थि तस्स किह नाम। वह उत्सारकल्पिक जीव और अजीव को नहीं जानता। उस्सारे चउगुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ वह असत्य के भय से पानी और मृग आदि की बात कह देता शिष्य ने पूछा-भंते ! बारह प्रकार के कल्पिकों में है। (वह उदकार्थी को कह देता है हां, उस नदी या तालाब उत्सारकल्पिक का नामोल्लेख नहीं है। इसका कारण क्या में पानी है। वह व्याध के पूछने पर कह देता है, हां, इधर से है? आचार्य ने कहा-उत्सारकल्पिक नहीं है। शिष्य ने पुनः मृग गए हैं। वह 'करण' अर्थात् चारित्र में विपर्यास करता है १. एक वाचक आचार्य एक नगर में आए। उनके साथ अनेक शिष्य थे। उसने वहां जाकर वाचक से पूछा-भंते! परमाणु पुद्गल के कितनी नगरवासी अत्यंत प्रमुदित हुए। आचार्य के प्रवचनों से सारा नगर इन्द्रियां होती हैं ? वाचक ने सोचा-परमाणु पुद्गल एक समय जितने आनन्द विभोर हो उठा। अन्ययूथिक निग्रंथ प्रवचन की प्रशंसा काल में लोक के चरमान्त तक पहुंच जाता है। तो निश्चित ही वह सुनकर बौखला गए। उन्होंने आचार्य के साथ वादगोष्ठी का पांच इन्द्रियों वाला होना चाहिए। उसने तत्काल कहा-परमाणु आयोजन किया। वाद में आचार्य की जीत हुई और अब नगर में पुद्गल के पांच इन्द्रियां होती हैं। परीक्षा के लिए आगत उस व्यक्ति ने उनकी कीर्ति अत्यधिकरूप से फैली। अन्ययूथिकों के मन में ईर्ष्या जान लिया कि ये वाचक ज्ञानशून्य हैं। अन्ययूथिकों ने वादगोष्ठी का और जलन उत्पन्न हो गई। वे अवसर की प्रतीक्षा में थे। वाचक समायोजन किया। अन्ययूथिकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का वह उत्तर न आचार्य वहां से विहार कर अन्यत्र चले गए। दे सका। पग-पग पर उसका पराभव हुआ और अन्ययूथिक एक बार उसी नगर में उत्सारकल्पिक वाचक आए। श्रावक विजयघोष करते हुए वाचक का तिरस्कार कर चले गए। निग्रंथ प्रमुदित हुए। अन्ययूथिकों ने उनके साथ वादगोष्ठी स्थापित करने से प्रवचन की अवहेलना हुई। श्रावकों के सिर लज्जा से झुक गए। पूर्व एक व्यक्ति को समागत वाचक के ज्ञान की परीक्षा करने भेजा। (वृ. पृ. २१७-२१९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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