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पीठिका =
उस एकाकी अगीतार्थ मुनि का चरक आदि (कणाद, गौतम, सांख्य) अन्यतीर्थिक व्युद्ग्राहण (अपहरण) कर लेते हैं। एकाकी होने के कारण वह साधर्मिकों का वात्सल्य आदि नहीं कर सकता। उसमें शंका आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं और इस प्रकार वह दर्शन से च्युत हो जाता है। उसकी बुद्धि भी दोषिल हो जाती है। उसकी शोधि (प्रायश्चित्त) नहीं होती। उसमें अनुद्यमता आ जाती है। उसमें 'निष्प्रग्रहता'गुरु की आज्ञा का नियमन नहीं रहता। इस प्रकार चरण विषयक उल्लंघना होती है। ७०१. सामन्नाजोगाणं, बज्झो गिहिसन्नसंथुओ होइ।
दसण-नाण-चरित्ताण मइलणं पावई एक्को॥ वह एकाकी मुनि श्रामण्ययोगों से बाह्य हो जाता है। वह गृहस्थों के समाचारों से परिचय करता है। अकेला होने के कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मलिन कर देता है। ७०२. कयमकए गिहिकज्जे, संतप्पइ पुच्छई तहिं वसइ।
संथव-सिणेहदोसा, भासा हिय नट्ठ सोगो अ॥ वह एकाकी मुनि क्रय-विक्रय संबंधी गृहीकार्यों में संतप्त होता है। गृहस्थों के लाभ-अलाभ के विषय में पूछता है और उन्हीं के मध्य रहता है। इससे संस्तव और स्नेह संबंधी दोष उत्पन्न होते हैं। फिर वह सावध भाषा का प्रयोग करने लग जाता है। गृहस्थ की कोई वस्तु चोर द्वारा चुरा लिए जाने पर अथवा स्वयं नष्ट हो जाने पर उस मुनि को शोक होता है, वह परितप्त हो जाता है। ७०३. अबहुस्सुए अगीयत्थे निसिरए वा वि धारए व गणं।
तद्देवसियं तस्सा, मासा चत्तारि भारिया॥ जो आचार्य अबहुश्रुत अथवा अगीतार्थ शिष्य को गच्छ का भार सौंपते हैं तो उसका प्रायश्चित्त है चार भारिक मास। अबहुश्रुत अथवा अगीतार्थ शिष्य उस निक्षिप्त गच्छभार को धारण करता है तो उसे भी चार गुरुकमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह उस दिवस संबंधी प्रायश्चित्त है। दूसरे दिन प्राप्त होने वाले प्रायश्चित्त का कथन आगे किया जाएगा। ७०४. अबहुस्सुअस्स देइ व, जो वा अबहुस्सुओ गणं धरए।
भंगतिगम्मि वि गुरुगा, चरिमे भंगे अणुन्नाओ। जो आचार्य गणभार को अबहुश्रुत शिष्य को सौंपता है अथवा अबहुश्रुत शिष्य निक्षिप्त गणभार को धारण करता है-- इस संबंध में चतुर्भंगी होती है। आद्यभंगत्रिक में गणदायक तथा गणधारक को चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। चरम भंग की अनुज्ञा है। ७०५. सत्तरत्तं तवो होइ, तओ छेओ पहावई।
छेएणऽच्छिन्नपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं॥
सातरात्र का तप होता है, फिर छेद आता है। छेद से अच्छिन्नपर्याय होने पर मूल, फिर द्विक अर्थात् अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। (इस गाथा का विस्तार अगली गाथा में।) ७०६. एक्कक्कं सत्त दिणे, दाऊण अइच्छियम्मि उ तवम्मि।
पंचाइ होइ छेदो, केसिंचि जहा कडो तत्तो॥ चतुर्गुरुक आदि एक-एक तप सात-सात दिनों का देने के पश्चात्, तपःप्रायश्चित्त के अतिक्रांत होने पर पंचक आदि से छेद होता है। कुछेक आचार्यों का यह अभिमत है कि जिस स्थान से तप प्रारंभ किया है, वहीं से छेद भी दिया जाता है। ७०७. तुल्ला चेव उ ठाणा, तव-छेयाणं हवंति दोण्हं पि।
पणगाइ पणगवुड्ढी, दोण्ह वि छम्मास निट्ठवणा। तप और छेद दोनों के स्थान तुल्य होते हैं। पांच रातदिन से प्रारंभ कर पंचकवृद्धि से वर्धमान स्थानों का छह मास में निष्ठापन समापन होता है। ७०८. पढिय सुय गुणिय धारिय, करणे उवउत्तो छहिं वि ठाणेहिं।
छट्ठाणसंपउत्तो, गणपरियट्टी अणुन्नाओ। जिसने निशीथाध्ययन को सूत्रतः पढ़ लिया है, गुरुमुख से उसका अर्थ सुन लिया है, उसका परावर्तन करता है, उसको सम्यग्रूप से धारण कर लिया है, जो उसके करणविधि-प्रतिषेध में उपयुक्त है तथा जो पांच महाव्रत और रात्रिभोजनविरमण-इन छहों स्थानों में उपयुक्त है, ऐसा मुनि पठित-श्रुत आदि छहों स्थानों में संप्रयुक्त है, वह गणवर्तापक के रूप में अनुज्ञात है। वह गण को धारण कर सकता है। ७०९. सत्तट्ट नवग दसगं, परिहरई जो विहारकप्पी सो।
तिविहं तीहिं विसुद्धं, परिहर नवएण भेएण॥ जो आचार्य आदि सात, आठ, नौ और दश प्रकार के प्रायश्चित्त, जो त्रिविध हैं-अर्थात् दान, तप और काल प्रायश्चित्तभेद से प्रत्येक तीन-तीन भेद वाले होते हैं उनका नवक भेदों से परिहार करता है वह विहारकल्पी होता है। इसका तात्पर्य है कि वह प्राप्त सप्तविध आदि प्रायश्चित्त का करणत्रय और योगत्रय से परिहार करता है। ७१०. दुविहो अ होइ छेदो, देसच्छेदो अ सव्वछेदो अ।
मूला-ऽणवट्ठ-चरिमा, सव्वच्छेओ अतो सत्त॥
छेद प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं-देशच्छेद और सर्वच्छेद। पंचक आदि से षण्मासपर्यन्त देशच्छेद होता है। मूल, अनवस्थाप्य तथा पारांचिक यह सर्वच्छेद है। दोनों प्रकार के छेद प्रायश्चित्त शब्द से व्यवहृत होते हैं, इस दृष्टि से प्रायश्चित्त के सात प्रकार हैं-आलोचनाह, प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयाई, विवेकाह, व्युत्सर्गार्ह, तपोर्ह और छेदाह।
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