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-बृहत्कल्पभाष्यम्
है। जो गीत और अर्थ-दोनों से युक्त होता है वह गीतार्थ प्रायश्चित्त आता है। यहां आठ भंग (विकल्प) होते हैंकहलाता है। अर्थात् वह सूत्रधर और अर्थधर-दोनों है।
१. एकाकी अजातकल्पिक तथा च्यवनकल्पिक भी। ६९१. जिणकप्पिओ गीयत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो। २. एकाकी अजातकल्पिक, च्यवनकल्पिक नहीं।
गीयत्थे इड्विदुर्ग, सेसा गीयत्थनीसाए॥ ३. एकाकी जातकल्पिक तथा च्यवनकल्पिक। जिनकल्पिक गीतार्थ होता है। परिहारविशुद्धि चारित्रवाला ४. एकाकी जातकल्पिक, च्यवनकल्पिक नहीं। भी गीतार्थ होता है। ऋद्धिद्विक अर्थात् आचार्य और ये एकाकीपद से चार भंग हैं। अनेकाकिपद से भी चार उपाध्याय ये भी गीतार्थ होते हैं। शेष सभी मुनि गीतार्थ की भंग होते हैं। निश्रा (आचार्य और उपाध्याय की निश्रा) में रहते हैं। ६९६. एगागित्तमणट्ठा, उवसंपज्जइ चुओ व जो कप्पा। ६९२. आयरिय गणी इड्डी, सेसा गीता वि होति तन्नीसा। सो खलु सोच्चो मंदो, मंदो पुण दव्व-भावेणं।
गच्छगय निग्गया वा, थाणनिउत्ताऽनिउत्ता वा॥ जो मुनि ज्ञान आदि प्रयोजन के बिना एकलविहार को आचार्य और गणी-उपाध्याय ये दोनों सातिशय ज्ञान स्वीकार करता है तथा जो कल्प अर्थात् संविग्नविहार से आदि से ऋद्धिमान होते हैं। शेष सभी गीतार्थ अथवा च्युत हो गया है, वह द्रव्यजीवन जीता हुआ भी शोचनीय अगीतार्थ मुनि भी उनकी निश्रा में विहरण करते हैं। गच्छगत होता है। वह मंद होता है। अर्थात द्रव्यतः और भावतः वह अथवा गच्छनिर्गत, स्थान पर नियुक्तः अथवा स्थान पर मंद होता है। अनियुक्त-ये सभी आचार्य और उपाध्याय की निश्रा में ६९७. एक्वेक्को पुण उवचय, अवचय भावे उ अवचए पगयं। रहते हैं।
तलिना बुद्धी सेट्ठा, उभयमओ केइ इच्छन्ति। ६९३. आयारपकप्पधरा, चउदसपुव्वी अ जे अ तम्मज्झा। द्रव्यमंद और भावमंद के दो-दो प्रकार हैं-उपचय और
तन्नीसाए विहारो, सवाल-वुड्डस्स गच्छस्स। अपचय। यहां भावतः अपचयमंद का अधिकार है। तलिन आचारप्रकल्प-निशीथ के धारक जघन्य गीतार्थ होते हैं। अर्थात् सूक्ष्मबुद्धि श्रेष्ठ होती है। जो इस बुद्धि से युक्त होता चतुर्दशपूर्वी उत्कृष्ट गीतार्थ होते हैं। इनके मध्यवर्ती अर्थात् है अर्थात् जो कुशाग्रीयमति होता है, वह उपचयभाव मंद है और कल्प-व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध को धारण करने वाले मध्यम जो स्थूलबुद्धि वाला होता है वह अपचयभावमंद होता है। कुछ गीतार्थ होते हैं। इन तीन प्रकार के गीतार्थों की निश्रा में आचार्य दोनों को अपचयबुद्धिमंद मानते हैं। अर्थात् निर्बुद्धिक सबालवृद्ध गच्छ का विहरण होता है।
और स्थूलबुद्धिक-दोनों को अपचयबुद्धिमंद मानते हैं। ६९४. एगविहारी अ अजायकप्पिओ जो भवे चवणकप्पे। ६९८. नाणाई तिट्ठाणा, अहवण चरणऽप्पओ पवयणं च। उवसंपन्नो मंदो, होहिइ वोसट्ठतिट्ठाणो॥
सुत्त-ऽत्थ-तदुभयाणि व, उग्गम उप्पायणाओ वा॥ एकविहारी-अकेला विहरण करने वाला, अजातकल्पिक-- जो एकाकी विहार करता है वह आदि तीन स्थानों से अगीतार्थ, तथा जो च्यवनकल्प-चारित्र से पतन के प्रकार परित्यक्त हो जाता है अथवा चारित्र, आत्मा और प्रवचन से को स्वीकृत अर्थात् पार्श्वस्थ विहारी तथा जिसने एकलविहार परित्यक्त हो जाता है। अथवा सूत्र, अर्थ और तदुभय-इन तीन को स्वीकार किया है, वह मन्द अर्थात् बुद्धिविकल होगा और स्थानों से विरत हो जाता है अथवा उद्गम, उत्पादन और व्युत्सृष्टत्रिस्थान ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों स्थानों एषणा-इन तीन स्थानों की शुद्धि से परित्यक्त हो जाता है। से परित्यक्त होगा।
६९९. अप्पुव्वस्स अगहणं, न य संकिय पुच्छणा न सारणया। ६९५. मोत्तूण गच्छनिग्गते, गीयस्स वि एक्कगस्स मासो उ। गुणयंते अ अदटुं, सीदइ एगस्स उच्छाहो॥
अविगीए चउगुरुगा, चवणे लहुगा य भंगट्ठा॥ जो एकाकी विहार करता है वह अपूर्वश्रुत के ग्रहण से गच्छनिर्गत अर्थात् जिनकल्पिक आदि मुनियों को वंचित रहता है। वह सूत्रार्थ संबंधी शंकित स्थानों की पृच्छा छोड़कर यदि गीतार्थ भी एकाकी विहार करता है तो उसको नहीं कर पाता। उसकी 'सारणा' नहीं होती। दूसरे मुनियों को मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अगीतार्थ यदि एकाकी परावर्तन करते हुए न देखकर वह स्वयं परावर्तन को छोड़ विहार करता है तो उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त देता है। परावर्तन आदि में एकाकी का उत्साह नहीं रहता। आता है। च्यवन अर्थात् पावस्थविहार (शिथिलविहार) का ७००. चरगाई बुग्गाहण, न य वच्छल्लाइ दंसणे संका। यदि मन से भी संकल्प करता है तो चार लघुमास का थी सोहि अणुज्जमया, निप्पग्गहया च चरणम्मि॥ १. स्थान पर नियुक्त-प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक-ये पदस्थ गीतार्थ होते हैं। स्थान पर अनियुक्त सामान्य मुनि।
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