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पीठिका
६८०. झाणट्ठया भायणधोवणाई, दोण्हऽट्ठया अच्छणहेउगंच। (देवेन्द्र और चक्रवर्ती के अवग्रह की अनुज्ञापना मन से ही
मिउग्गहं चेव अहिट्ठयंते, मा सो व अन्नो व करेज्ज मन्न॥ होती है। गृहपति के अवग्रह की मन से तथा वचन से, मुनि ध्यान करने के लिए, भाजन आदि धोने के लिए, सागारिक और साधर्मिक के अवग्रह की अनुज्ञा नियमतः उच्चार और प्रस्रवण-दोनों के लिए तथा स्वयं के बैठने के वचन से ही होती है।) लिए परिमित अवग्रह ही स्थापित करते हैं जिससे कि ६८५. भावोग्गहो अहव दुहा, मइ-गहणे अत्थ-वंजणे उ मई। शय्यातर तथा अन्य लोग उनके प्रति अप्रीति वहन न करें। गहणे जत्थ उ गिण्हे, 'मणसी कर' अकरणे तिविहं ।। ६८१. चेयणमचित्त मीसग, दव्वा खलु उग्गहेसु एएसु। अथवा भावावग्रह दो प्रकार का होता है-मतिभावाग्रह
जो जेण परिग्गहिओ, सो दव्वे उग्गहो होइ॥ और ग्रहणभावावग्रह। मतिज्ञानरूप भावावग्रह के दो प्रकार देवेन्द्र आदि के अवग्रह में जितने चेतन, अचेतन तथा हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। जहां मुनि जिसके अवग्रह से मिश्र द्रव्य हैं वे सारे उनके द्वारा परिगृहीत हैं। वह कोई वस्तु ग्रहण करता है तब ग्रहणभावावग्रह होता है। उस द्रव्यावग्रह है।
समय यदि मन में अनुज्ञापना नहीं करता तो उसे तीन प्रकार ६८२. दो सागरा उ पढमो, चक्की सत्त सय पुव्व चुलसीई। का प्रायश्चित्त प्रास होता है।
सेसनिवम्मि मुहुत्तं, जहन्नमुक्कोसए भयणा॥ ६८६. पंचविहम्मि परूविए, स उग्गहो जाणएण घेत्तव्यो। प्रथम अर्थात् देवेन्द्रावग्रह का कालावग्रह दो सागरोपम
अन्नाए उग्गहिए, पायच्छित्तं भवे तिविहं॥ काल तक होता है। चक्रवर्ती का जघन्य कालावग्रह सात सौ अवग्रह के पांच प्रकार प्ररूपित हैं। 'यह इस प्रकार का वर्षों तक ब्रह्मदत्तचक्री का तथा उत्कृष्ट कालावग्रह चोरासी अवग्रह है'-इस प्रकार अवग्रह का ज्ञाता मुनि उसे ग्रहण लाख पूर्व भरतचक्री का होता है। शेष नृपों का जघन्य करे। जो अज्ञात अवग्रह को ग्रहण करता है, उसे तीन प्रकार कालावग्रह अंतर्मुहर्त का होता है और उनके उत्कृष्ट का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कालावग्रह की भजना है। (इसका तात्पर्य है-अंतर्मुहूर्त्त से ६८७. इक्कड-कढिणे मासो, चाउम्मासो अ पीढ-फलएसु। प्रारंभ कर समय की वृद्धि के साथ वर्धमान चौरासी लाख कट्ठ-कलिंचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु॥ पूर्व पर्यन्त आयुःस्थान होता है। जो नृप जितने आयुष्य का इक्कड (एक प्रकार का घास), कढिण-शरस्तंब आदि भोग करता है अथवा जो जितने काल तक राज्यैश्वर्य का का संस्तारक ग्रहण करने पर एक मासलघु, काष्ठमय पीढ़अनुभव करता है, वह उसका उत्कृष्ट कालावग्रह होता है।) फलक आदि ग्रहण करने पर प्रत्येक का चार मासलघु, ६८३. एवं गहवइ-सागारिए वि चरिमे जहन्नओ मासो। काष्ठशलाका, किलिंच, क्षार, मल्लक आदि ग्रहण करने पर
उक्कोसो चउमासा, दोहि वि भयणा उ कज्जम्मि॥ पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार गृहपति और सागारिक इन दोनों का जघन्य ६८८. गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ। और उत्कृष्ट कालावग्रह शेष नृपति की भांति जानना चाहिए। ___ इत्तो तइयविहारो, नाणुन्नाओ जिणवरेहिं॥ चरम अर्थात् साधर्मिकावग्रह जघन्यतः एक मास और जिनेश्वरदेव ने दो प्रकार के विहार की अनुज्ञा दी हैउत्कृष्टतः चार मास का होता है। जघन्य और उत्कृष्ट में पहला है-गीतार्थ का विहार तथा दूसरा है गीतार्थनिश्रित कार्य के आधार पर भजना है। (ग्लान आदि के कारण इन विहार। इनके अतिरिक्त तीसरे प्रकार के विहार की जिनेश्वर दोनों में अतिरिक्त काल भी हो सकता है।)
देव ने अनुज्ञा नहीं दी है। ६८४. चउरो ओदइअम्मी, खओवसमियम्मि पच्छिमो होइ। ६८९. गीयं मुणितेगहूँ, विदियत्थं खलु वयंति गीयत्थं ।
मणसी करणमणुन्नं, च जाण जं जत्थ ऊ कमइ॥ गीएण य अत्थेण य, गीयत्थो वा सुयं गीयं ॥ देवेन्द्र, राजा, गृहपति तथा सागारिक-इन चारों के गीतं और मुणितं एकार्थक हैं। गीतार्थ वह होता है जो अवग्रह औदयिकभाव हैं (क्योंकि 'यह क्षेत्र मेरा है' ऐसी छेदसूत्र के अर्थ का परिज्ञाता होता है। जो गीत और अर्थ से मूर्छा उनमें होती है।) पश्चिम अर्थात् साधर्मिकावग्रह युक्त होता है वह गीतार्थ होता है। गीत का अर्थ है श्रुत। क्षायोपशमिक भाव है। यह भावावग्रह है।
६९०. गीएण होइ गीई, अत्थी अत्थेण होइ नायव्वो। जहां देवेन्द्र आदि के अवग्रह का प्रसंग आता है वहां मन गीएण य अत्थेण य, गीयत्थं तं विजाणाहि॥ में 'जिसका यह अवग्रह है, वह मुझे अनुज्ञा दे।' यह कहना गीत अर्थात् सूत्र। जो केवल श्रुतधर (सूत्रधर) है वह पर्याप्त होता है।
गीती कहलाता है। जो केवल अर्थधर है वह अर्थी कहलाता
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