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________________ ७४ -बृहत्कल्पभाष्यम् को प्राप्त नहीं होते। चार अवग्रहों में (साधर्मिक अवग्रह के ६७५. सरगोयरो अ तिरियं, वावत्तरिजोयणाई उद्धं तु। बिना) पूर्व अनुज्ञा तथा अभिनव अनुज्ञा की भजना है। जिस अहलोगगाम-अघमाइ हे?ओ चक्किणो खित्तं॥ अवग्रह का पहले वाले साधुओं ने अनुज्ञा ली, यदि बाद में चक्रवर्ती के बाण का जितना क्षेत्र विषय बनता है वह आने वाले साधु उसीका परिभोग करते हैं जो वह पूर्वानुज्ञा चक्रवर्ती का तिर्यक् क्षेत्र है। वही बाण ऊर्ध्वदिशा में बहोत्तर है। अभिनवरूप में अनुज्ञा लेना अभिनवानुज्ञा है। (वृत्तिकार योजन तक जाता है। चक्रवर्ती का इतना ऊर्ध्व क्षेत्र है। ने इस गाथा को बहुत विस्तार से समझाया है।) अधोलोक के ग्राम, गर्त आदि तक चक्रवर्ती का अधः क्षेत्र है। ६७१. दव्वाई एक्कक्को, चउहा खित्तं तु तत्थ पाहन्ने। ६७६. गहवइणो आहारो, चउहिसिं सारियस्स घरवगडा। तत्थेव य जे दव्वा, कालो भावो अ सामित्ते॥ हेट्ठा अघा-ऽगडाई, उर्दू गिरि-गेहधय-रुक्खा ॥ प्रत्येक अवग्रह चार प्रकार का है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः कालतः गृहपति (सामान्य मंडलाधिपति) का प्रभुत्व विषयभूत और भावतः। इनमें क्षेत्र की प्रधानता है। क्षेत्र में जो द्रव्य होते जितना चारों दिशाओं में आधार होता है, वह उसका तिर्यग है, काल और भाव होते हैं वे सब क्षेत्र के स्वामित्व में होते हैं। अवग्रह है। सागारिक अर्थात् शय्यातर का तिर्यग् अवग्रह है ६७२. पुव्वावरायया खलु, सेढी लोगस्स मज्झयारम्मि। गृहवृत्तिपरिक्षेपपर्यन्त। दोनों के अधः अवग्रह है-गर्त्त, कूप जा कुणइ दुहा लोग, दाहिण तह उत्तरद्धं च॥ आदि और ऊर्ध्व अवग्रह है-गिरी, गृहध्वज और वृक्ष। लोक के मध्यभाग में मंदरपर्वत के ऊपर एक प्रादेशिकी ६७७. अजहन्नमणुक्कोसो, पढमो जो आवि चक्कवट्टीणं। आकाशप्रदेशपंक्ति पूर्व-पश्चिम दिशा में दीर्घतर गई है। वह सेसनिव रोहगाइसु, जहन्नओ गहवईणं च॥ श्रेणि लोक के दो भागों में विभक्त करती है-दक्षिणलोकार्द्ध देवेन्द्रावग्रह और चक्रवर्ती का अवग्रह न जघन्य और न और उत्तरलोकार्द्ध। (दक्षिणलोकार्द्ध का स्वामी है शक्र और उत्कृष्ट होता है अर्थात् वह सदा एक रूप रहता है। शेष नृपतियों उत्तरलोकार्द्ध का स्वामी है ईशान। दक्षिणलोकार्द्ध में जो तथा गृहपती का जघन्य क्षेत्रावग्रह उतना होता है जितना आवलिकप्रविष्ट तथा पुष्पावकीर्ण विमान हैं, वे शक्र के शत्रुराजा द्वारा नगरवेष्टन आदि (रोधन) किया जाता है। आधिपत्य में हैं।) ६७८. नगराइ निरुद्ध घरे, जा याऽणुन्ना उ दु चरिम जहन्नो। ६७३. साधारण आवलिया, मज्झम्मि अवद्धचंदकप्पाणं। उक्कोसो उ अनियओ, अचक्किमाईचउण्हं पि॥ अद्धं च परिक्खित्ते, तेसिं अद्धं च सक्खित्ते॥ दो चरम अर्थात् सागारिक और साधार्मिक का नगर अपार्द्धचन्द्रकल्प अर्थात् अर्धचन्द्राकारवाले सौधर्म और आदि में जघन्य क्षेत्रावग्रह इस प्रकार है-किसी राजा ने नगर ईशान देवलोक के मध्यम श्रेणी में जो विमानों की आवलिका आदि का निरोध कर दिया। बाहर के वास्तव्य जब शय्यातर है उसका आधिपत्य साधारण अर्थात् सौधर्म और ईशान- अथवा साधार्मिक के घर में प्रवेश करते हैं तब वे कह सकते दोनों का है। मध्यमश्रेणी में स्थित विमानों की आधी संख्या । हैं-अमुक स्थान में रहने की हमारी अनुज्ञा है। वह उनका अपने-अपने कल्प की सीमा में हैं और शेष आधी संख्या जघन्य क्षेत्रावग्रह है। अचक्री आदि चारों का उत्कृष्ट अवग्रह अपरकल्प की सीमा में हैं। अनियत होता है। ६७४. सेढीइ दाहिणेणं, जा लोगो उड्ड मो सकविमाणा। ६७९. अणुन्नाए वि सव्वम्मी, उग्गहे घरसामिणा। हेट्ठा वि य लोगंतो, खित्तं सोहम्मरायस्स॥ तहा वि सीमं छिंदंति, साहू तप्पियकारिणो॥ पूर्वोक्त श्रेणी के दक्षिण दिशा में जहां तक लोक है अर्थात् गृहस्वामी (शय्यातर) ने यद्यपि सारे अवग्रह की अनुज्ञा तिर्यकलोकपर्यन्त, ऊर्ध्व दिशा में स्वविमानपर्यन्त तथा दी है, फिर भी मुनि सीमा का निर्धारण करें जिससे कि अधोदिशा में अर्धस्तनलोकपर्यन्त सौधर्मराज का क्षेत्र है। शय्यातर को समाधि हो। १. सभी अपने-अपने अवग्रह में बलीयान् होते हैं। राजा स्वयं के मुनियों की अनुज्ञा का उपभोग करते हैं, वह उनकी पूर्वानुज्ञा है। इसी अवग्रह में देवेन्द्र से भी बलीयान होता है, गृहपति अपने अवग्रह में प्रकार अन्य अवग्रहों में भी ज्ञातव्य है। राजा से भी बलीयान, सागारिक अपने अवग्रह में गृहपति से भी ३. वृत्तिकार का कहना है कि साधार्मिक का उत्कृष्ट क्षेत्रावग्रह यहां बलीयान और साधर्मिक अपने अवग्रह में सागारिक से भी निर्दिष्ट नहीं है। इसका कारण कुछ भी रहा हो, किन्तु बृहद्भाष्य में बलीयान होता है। उसका उल्लेख है-साधार्मिकाणां तु क्षेत्रावग्रह उत्कृष्टः कुतोऽपि २. जैसे शय्यातर ने प्रथम समागत साधुओं को स्थान के लिए अनुज्ञा दी, हेतोरत्र नोक्तः, परंबृहद्भाष्ये इत्थमभिहितः-उज्जाणं वा मडंबाई वह उनके लिए अभिनव अनुज्ञा है। वहां दूसरे मुनि आकर पूर्ववर्ती मडम्बादी उद्यानं यावदुत्कृष्टः क्षेत्रावग्रहः। (व.पू. २०२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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