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________________ पीठिका (६) यह उत्क्षिप्त है या नहीं ? (७) यह शष्क है अथवा आर्द्र ? (८) यह प्रकाशमुखवाला है या अप्रकाशमुखवाला ? पात्र यदि देखने पर निर्दोष लगे तो उसे ग्रहण करे। ६६१ विद्रुमवि विठ्ठे, खमतरमियरे न दिस्सए काया । दहिमाईहि अरिक्कं वरं तु इयरे सिया पाणा ॥ दृष्ट और अदृष्ट पात्र के मध्य दृष्ट पात्र क्षमतर होता है, उसे ग्रहण करना युक्त है । अदृष्टपात्र में पृथ्वी आदि काय के जीव नहीं देखे जाते । दधि, मोदक आदि से अरिक्त पात्र अच्छा होता है। रिक्त पात्र में कदाचित् कुंषु आदि प्राणी हो सकते हैं। ६६२. अकयमुहे दुप्पस्सा, बीयाई छेयणाइ दोसा वा । कुंथूमादवते, फासुवहतं अओ धन्नं ॥ अकृतमुखवाले पात्र दुः प्रत्युपेक्ष होते हैं उनमें जीव नहीं देखे जा सकते। वहां बीजों का उद्भव हो सकता है। छेदनभेदन आदि दोष होते हैं। इसलिए वह ग्राह्य नहीं होता। अवमानक (जो प्रयोग में न आ रहा हो ) पात्र में कुंथु आदि प्राणी संभावित होते हैं। इसलिए प्रासुक वस्त्र आदि से वहमानक पात्र धन्य अर्थात् संयमधन का उपकारक होता है । ६६३. एमेव य संसद्वं, फासुअ अप्फासुएण पडिकुडं । उक्तं च खमतरं जं चोल्लं फासुदव्वेणं ॥ इसी प्रकार संसृष्ट पात्र के विषय में जानना चाहिए। जो प्रासु अन्न आदि से संसृष्ट- खरंटित हो, वह ग्राह्य है। अप्राक से संसृष्ट प्रतिकृष्ट निषिद्ध है जो गृही के द्वारा स्वयं उल्शिस है, वह क्षमतर है जो पात्र प्रासुक द्रव्य से आर्द्र है वह ग्राह्य है, अप्रासुक द्रव्य से आर्द्र पात्र का परिहार करना चाहिए। 5 ६६४. जं होइ पगासमुहं, जोग्गयरं तं तु अप्पगासाओ । तस बीयाइ अठ्ठे इमं तु जयणं पुणो कुणइ ॥ जो पात्र प्रकाशमुख वाला होता है वह योग्यतर होता है, जी पात्र अप्रकाशमुख वाला होता है वह ग्राह्य नहीं होता। पात्र को आंखों से देखकर यदि त्रस - बीज आदि न दीख पड़े तो यह वक्ष्यमाण यतना पुनः करे । ६६५. ओमंथ पाणमाई, पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य । तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, सुद्धो ससिणिद्धमाईसु ॥ पात्र को ओंधा कर तीन स्थानों में तीन बार प्रस्फोटित करे। शिष्य ने पूछा- पात्र विषयक मूलगुण और उत्तरगुण क्या हैं ? (यह आगे गा. ६६८ में बताया जायेगा ।) जिस पात्र में पहले अप्काय था, वह आज सस्निग्ध हो सकता है। तीन बार उसको प्रस्फोटन करके ले, वह पात्र शुद्ध है। ७३ कोणं, घेत्तुत्ताणेण वाममणिबंधे । ६६६. दाहिणकरेण खोडेड तिन्नि वारे, तिनि तले तिनि भूमीए ॥ दक्षिण हाथ से पात्र का कर्ण पकड़ कर, पात्र को ओंधा कर वाम हाथ के मणिबंध पर तीन बार उस पात्र का प्रस्फोटन करे फिर तीन बार हाथ के तल पर और फिर भूमी पर तीन बार उसका प्रस्फोटन करे । ६६७. तस - बीयाइ व दिट्ठे, न गिण्हई गिण्हई उ अछि । Jain Education International गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पइ दिट्ठेहिं वि बहूहिं ॥ यदि इस प्रकार नौ बार प्रस्फोटन करने पर बस जीव अथवा बीज आदि न दीख पड़े तो उसे ग्रहण करे, दीख पड़े तो ग्रहण न करे। परिशुद्ध-निर्दोष जानकर ग्रहण किए हुए पात्र को लेकर उपाश्रय में आ जाने पर यदि उसमें अनेक बीज आदि दृग्गोचर हों तो भी वह पात्र कल्पनीय है। (उस पात्र को न गृहस्थ को पुनः लौटाया जा सकता है और न परिष्ठापित किया जा सकता है, क्योंकि वह श्रुतप्रामाण्य से गृहीत है। किन्तु एकांत में उन दृष्ट बीजों का परिष्ठापन कर पात्र काम में लिया जा सकता है।) ६६८. मुकरणं मूलगुणा, पाए निक्कोरणं च इअरे उ १२ गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरिमए सुद्धो ॥ पात्र का मुखकरण मूलगुण हैं। पात्र का 'निक्कोरण २ करना उत्तरगुण हैं। इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार है १. संयमी के लिए कृतमुख और संयमी के लिए उत्कीर्ण । २. संयमी के लिए कृतमुख और स्वयं के लिए उत्कीर्ण । ३. स्वयं के लिए कृतमुख, संयमी के लिए उत्कीर्ण । ४. स्वयं के लिए कृतमुख, स्वयं के लिए उत्कीर्ण । प्रथम भंग में प्रायश्चित्त है-तप-काल से गुरु चार गुरुमास । दूसरे भंग में प्रायश्चित्त है-तप से गुरू, काल से लघु चार गुरुमास। तीसरे भंग में प्रायश्चित्त है तप और काल से लघु चार लघुमास । चरम भंग शुद्ध है। ६६९. देविंद राय - गहवइउग्गहो सागारिए अ साहम्मी । पंचविहम्मि परूविएँ, नायव्वो जो जहिं कमइ ॥ अवग्रह पांच प्रकार का प्ररूपित है- देवेन्द्रावग्रह, राजावराह, गृहपति अवग्रह, सागारिक ( शय्यातर) अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। जहां जिस अवग्रह का प्रसंग हो, उसको वहां जानना चाहिए। ६७०, डिल्ला उवरिल्लेहिं बाहिया न उ लहंति पाहनं । पुव्वाणुन्नाऽभिनवं च चउसु भय पच्छिमेऽभिनवा ॥ , अधस्तन अर्थात् देवेन्द्र अवग्रह आदि उपरितन अर्थात राजावग्रह आदि से यथाक्रम बाधित होते हैं। अतः वे प्राधान्य १. धनाय हितमिति 'धन्यं' - संयमधनोपकारकमित्यर्थः । (बृ. पृ. १९७) २. पात्र का मुखकरण करने के पश्चात् भीतर से उसका उत्किरण करना निक्कोरण कहलाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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