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=बृहत्कल्पभाष्यम्
___ पात्र के चार प्रकार हैं-नामपात्र, स्थापनापात्र, द्रव्यपात्र कारण प्रेक्षापात्र है। एक गृहस्थ के पास दो पात्र हैं। प्रतिदिन और भावपात्र। ये पात्र के चार निक्षेप हैं।
एक को काम में लेता है, दूसरे को नहीं। जिस दिन जिसको ६५१. दव्वे तिविहं एगिंदि-विगल-पंचिंदिएहिं निप्फन्न। काम में लेता है, वह संगतिकपात्र कहलाता है और दूसरा
भावे आया पत्तं, जो सीलंगाण आहारो॥ पात्र वैजयन्तिक। इन दोनों में से एक का ग्रहण पात्र गवेषणा द्रव्यपात्र तीन प्रकार के हैं-एकेन्द्रियनिष्पन्न, विकलेन्द्रिय- की तीसरी प्रतिमा है। निष्पन्न, पंचेन्द्रियनिष्पन्न। भावपात्र है-आत्मा। वह अठारह ६५६. दव्वाइ दव्व हीणाहियं तु अमुगं च मे न घेत्तव्यं । हजार शीलांग का आधार है।
दोहि वि भावनिसिटुं, तमुज्झिओभट्ठऽणोभट्ठ॥ ६५२. लाउय दारुय मट्टिय, तिविहं उक्कोस मज्झिम जहन्नं । उज्झितकपात्र के चार प्रकार हैं-द्रव्योज्झित, क्षेत्रोज्झित, ___ एक्केक्कं पुण तिविहं, अहागडऽप्पं सपरिकम्म॥ कालोज्झित और भावोज्झित। किसी गृहस्थ ने यह प्रतिज्ञा की
द्रव्यपात्र के तीन प्रकार और हैं-अलाबुमय, दारुमय और कि मैं अमुक प्रमाण से अधिक या हीन पात्र अथवा अमुक मिट्टीमय। प्रत्येक तीन-तीन प्रकार के होते हैं-उत्कृष्ट, प्रकार के पात्र को ग्रहण नहीं करूंगा। किसी ने वैसा ही पात्र मध्यम और जघन्य। ये प्रत्येक तीन-तीन प्रकार के होते लाकर दिया। यह दायक और ग्राहक-दोनों द्वारा भावतः हैं-यथाकृत, अल्पपरिकर्म तथा सपरिकर्म।
निःसृष्ट पात्र, वह चाहे अवभाषित हो अथवा अनवभाषित, वह ६५३. वोच्चत्थे चउलहुआ, आणाइ विराहणा य दुविहा उ। द्रव्योज्झित पात्र है। __छेयण-भेयणकरणे, जा जहिं आरोवणा भणिया॥ ६५७. अमुइच्चगं न धारे, उवणीयं तं च केणई तस्स।
पात्र के ग्रहण और करण में विपर्यास करने पर चतुर्लघु जं वुज्झ भरहाई, सदेस बहुपायदेसे वा॥ का प्रायश्चित्त, आज्ञा आदि दोष तथा दो प्रकार की विराधना 'मैं अमुक देश का पात्र धारण नहीं करूंगा' यह निश्चय होती है-संयमविराधना और आत्मविराधना। पात्र का छेदन, करने के पश्चात् कोई वहीं का पात्र उपहृत करता है, वह भेदन करने में जो जहां संयमविराधना या आत्मविराधना में दोनों द्वारा उज्झित पात्र क्षेत्रोज्झित पात्र कहलाता है। अथवा आरोपणा कही है, वह जाननी चाहिए।
जो भरत आदि अर्थात् नट, चारण आदि अपने देश जाते हुए ६५४. उद्दिसिय पेह संगय, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ। अथवा बहपाववाले देश में जाते समय अपने पात्र छोड़ जाते
सव्वे जहन्न एक्को, उस्सग्गाई जयं पुच्छे॥ हैं, वे पात्र भी क्षेत्रोज्झित पात्र होते हैं। पात्रगवेषणा की चार प्रतिमाएं हैं-उद्दिष्टपात्र, प्रेक्षापात्र, ६५८. दगदोद्धिगाइ जं पुव्वकाल जुग्गं तदन्नहिं उज्झे। संगतिकपात्र और उज्झितधर्मकपात्र। पात्र की गवेषणा में होहिइ व एस्सकाले, अजोग्गयमणागयं उज्झे॥ जाने वाले सभी मुनि गीतार्थ हों अथवा कुछ गीतार्थ और कुछ जलतुम्बक, तक्रतुम्बक आदि जो पूर्वकाल में इसके योग्य अगीतार्थ हो अथवा एक गीतार्थ हो तो उसके नेतृत्व में पात्र थे, वे अन्यकाल में अथवा भविष्यकाल में अयोग्य हो जाएंगे, की गवेषणा में घूमे। कायोत्सर्ग आदि (गा. ६१९ वत्) यह मानकर उनको छोड़ दिया जाता है। वे कालोज्झित पात्र 'जयं पुच्छे'-वह पूर्वोक्त यतना करता हुआ पूछे। इसका कहलाते हैं। तात्पर्य है-श्रावकों को न पूछे। भावितकुलों में पूछे। वे जब ६५९. लक्ष्ण अन्नपाए, पोराणे सो उ देइ अन्नस्स। पात्र दिखाएं तो पूछे-यह किसका है? पहले यह क्या था?
सो वि अनिच्छइ ताई, भावुज्झिय एवमाईयं॥ आगे यह क्या होगा? यह कहां था? यह प्रश्न चतुष्टय गृहस्थ नये पात्रों को प्राप्त कर पुराने को छोड़ देता है, पूर्ववत् करे। जैसे वस्त्र ग्रहण की विधि है, वही पात्र ग्रहण की दूसरों को देता है। दूसरा भी उन्हें नहीं चाहता। यह सारा विधि है। (यह गा. ६१५ से ६१९वें श्लोकवत् जानना भावोज्झित जानना चाहिए। चाहिए।)
६६०. ओभासणा य पुच्छा, दिद्वे रिक्के मुहे वहंते य। ६५५. उद्दिट्ट तिगेगयरं, पेहा पुण दट्ठ एरिसं भणइ। संसटे उक्खित्ते, सुक्के अ पगासे दट्ठणं । ___ दोण्हेगयरं संगइ, वाहयई वारएणं तु॥ पात्र के उत्पादन (प्राप्ति) विषयक अवभाषण करना
तीन प्रकार के पात्रों-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट में से चाहिए। ये आठ पृच्छाएं करनी चाहिए-(१) यह दृष्टकिसी एक को लाने के लिए गुरु के समक्ष प्रतिज्ञा की, वह प्रशस्य है अथवा अदृष्ट। (२) यह रिक्त है अथवा अरिक्त याच्यमान उद्दिष्ट पात्र कहलाता है। पात्र का अवलोकन कर (३) इसका मुख किया हुआ है या नहीं? (४) यह वहमानक 'ऐसा मुझे दो' यह कहना प्रेक्षापूर्वक याच्यमान होने के हे अथवा अवहमानक ? (५) यह संसृष्ट है या असंसृष्ट ?
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