SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीठिका यदि तूर्यपति--नटमहत्तर वस्त्र दे तो उसे कहे- क्या ये नटों के वस्त्र हैं ? नट वस्त्र दें तो कहे- क्या ये नटपति के वस्त्र है? इसी प्रकार भौगिक और सेवक के विषय में भी जानना चाहिए। स्तेन के ये चार प्रकार हैं- स्वग्रामस्तेन, परग्रामस्तेन स्ववेशस्तेन और परवेशस्तेन । इनसे वस्त्रग्रहण करने पर उड्डाह - प्रवचन की लघुता होती है। तत्संबंधी प्रायश्चित्त इस प्रकार है- स्वग्रामस्तेन से लेने पर मूल, परग्रामस्तेन से लेने पर छेद, स्वदेश के स्तेन से लेने पर छह गुरुकमास तथा परदेश के स्तेन से लेने पर चार गुरुकमास ६४३. एवं पुच्छासुद्धे, किं आसि इमं तु जं तु परिभुत्तं । किं होहि त्ति अहतं, कत्थाऽऽसि अपुच्छणे लहुगा ।। इस प्रकार पृच्छा से शुद्ध-निर्दोष निर्णीत होने पर जो भुक्तपूर्व वस्त्र है उसके विषय में पूछे कि यह वस्त्र क्या था अर्थात् तुम्हारे वह किस उपयोग में आया था। 'अहत' अर्थात् अपरिभुक्त वस्त्र के विषय में पूछे कि यह क्या काम आयेगा ? यह कहां रखा हुआ था? इस प्रकार पृच्छा न करने पर प्रत्येक पृच्छा संबंधी चार-चार लघुकमास का प्रायश्चित्त आता है। ७१ यदि गृहस्थ कहे कि यह वस्त्र नित्यनिवसनीय होगा, परन्तु यदि वैसा वस्त्र दूसरा न हो तो उसको ग्रहण करने पर पश्चात्कर्म आदि दोष होते हैं। यदि वैसा दूसरा वस्त्र हो तो लेना कल्पता है। यदि अवहमान वस्त्र नया हो तो भी ग्रहण करना कल्पता है। वैसा करने पर भी प्रवाहनादोष होते हैंऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं- साधु वह वस्त्र ले या न ले फिर भी गृहस्थ उनमें से एक ही वस्त्र का उपयोग करेगा। वैसे वस्त्रग्रहण करने में कोई दोष नहीं है। Jain Education International ६४७. एमेव मज्जणाई, पुच्छासुद्धं तु सव्वओ पेहे। मणिमाई दाईति व असि मा सेहवादाणं ॥ इसी प्रकार मज्जनिक, क्षणोत्सविक तथा राजद्वारिक वस्त्रों के विषय में जानना चाहिए। जो वस्त्र पृच्छा करने पर शुद्ध अर्थात् निर्दोष जान पड़े तो उस वस्त्र को चारों ओर से निरीक्षण करे। क्योंकि संभव है उस वस्त्र के किसी कोने में मणि आदि (हिरण्य, सुवर्ण) बंधा हुआ हो। निरीक्षण काल में वह दीख पड़े तो गृहस्थ को वह दिखा दे। गृहस्थ को न दिखाने पर या न कहने पर शैक्ष आदि उसका ग्रहण न कर ले। ६४८. एवं तु गविद्वेसुं, आयरिया दिति जस्स जं नत्थि । समभागेसु कएस व जहराहणिया भवे बीओ ॥ इस प्रकार वस्त्रों की गवेषणा और प्राप्ति कर मुनि आचार्य के पास आए और उनको वस्त्र दिखाए। फिर आचार्य जिस मुनि के पास जो वस्त्र न हो उसको वह दे । यह वस्त्र देने का एक प्रकार है। उसका दूसरा प्रकार यह है - लाए हुए वस्त्रों का समविभाग कर दे। फिर रत्नादिक मुनियों के क्रम से उसे दे। ६४४. निच्चनियंसण मज्जण, छणूसवे रायदारिए चेव । सुत्तत्यजाणपणं, चउपरियन्ट्टे तओ गहणं ॥ यह पूछे जाने पर कि यह वस्त्र किस प्रयोजन में काम आता था, तो गृहस्थ कहते हैं यह वस्त्र प्रतिदिन उपयोग में आता था। यह स्नानान्तर, यह क्षण, उत्सव आदि में, तथा राजभवन में जाते समय काम में आता है। गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर सूत्रार्थ ज्ञायक अर्थात् गीतार्थ मुनि उपरोक्त चार प्रकार के परिवर्तनीय वस्त्रों के युगल हों तो उसमें से कोई एक वस्त्र देना चाहे, वह ग्रहण करे। ( इस गाथा की भावना निम्नोक्त गाथा में है ।) ६४५. निच्चनियंसणियं ति य, अन्नासह पच्छकम्म - वहणाई | अत्थि वहते घिप्पइ, इयरय फुस - धोय-पगयाई ॥ नित्यनिवसनीय वस्त्र के सदृश दूसरा नित्यनिवसनीय वस्त्र न हो तो (उसको ग्रहण कर लेने पर) पश्चात्कर्म, वहन' आदि दोष होते हैं, अतः उसे ग्रहण करना नहीं कल्पता । यदि दूसरा नित्यनिवसनीय वस्त्र व्यापृयमाण हो तो वह वस्त्र लिया जा सकता है। अवहमान को वहमान करने के लिए अप्काय से उत्स्पर्शन, धावन, प्रकरण आदि क्रियाएं करनी पड़ती हैं। ६४६. होहिइ व नियंसणियं, अण्णासइ गहण पच्छकम्माई । अत्थि नवे वि उ गिण्इ, तहिं तुल्ल पवाहणादोसा ॥ १. जो वस्त्र काम में नहीं आ रहा है, उसको काम में लाते समय अनेक क्रियाएं करनी पड़ती हैं। वे वहन क्रियाएं होती हैं। ६४९. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। दोहि गुरु तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ।। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन 'पात्रैषणा' को अप्राप्त अर्थात् अनधीत शिष्य को पात्र लाने के लिए प्रेषित करने पर उसे चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। दो से गुरु अर्थात् तपोगुरुक और कालगुरुक। सूत्र को प्राप्त है, परंतु अर्थ का कथन नहीं हुआ है, अर्थ के कह देने पर भी उसका अधिगत- हृदयंगम नहीं किया है, अथवा अधिगत होने पर भी उस पर सम्यक् श्रद्धा है या नहीं, यह परीक्षा किए बिना भेजने पर, प्रत्येक अर्थात् अकथन, अनधिगत और अपरीक्षण के लिए चार चार लघुक का प्रायश्चित्त आता है दो से लघु अर्थात् तपोलघुक और काललघुक ६५०, नामं ठवणा दविए, भावम्मि चउबिहं भवे पाये। एसो खलु पायस्सा, निक्खेवो चउव्विहो होइ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy