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=बृहत्कल्पभाष्यम्
मनोज्ञ मुनि ग्लान आदि के लिए रुके हुए मनोज्ञ साधुओं की निश्रा में वस्त्रों का निक्षेपण करते हैं, इन वस्त्रों का परिभोग, काल के बीत जाने पर भी कर सकते हैं। उसमें कोई स्थापना दोष नहीं होता। यदि मुनियों को वस्त्रों की आवश्यकता न हो तो वे वस्त्र ही स्थापित रहते हैं। जब यह ज्ञात न हो तो वे वस्त्र वैसे ही स्थापित रहते हैं। जब यह ज्ञात हो जाता है कि वे मुनि बहुत दूर देशों में चले गए हैं तो उन वस्त्रों का परिष्ठापन कर दिया जाता है। ६३२. दमए दूभगे भट्ठे, समणच्छन्ने अ तेणए।
न य नाम न वत्तव्यं, पुढे रुठे जहावयणं॥ ये वस्त्र किसके हैं, यह प्रक्षेपणा दोष को निश्चित करने के लिए पूछा जाता है। पूछने पर वह कहता है
द्रमक, दुर्भग-अभागी, भ्रष्ट, श्रमणवेश से स्वयं को छुपाने वाला, स्तेनक-इनके लिए ये वस्त्र हैं। यदि पुनः यह पूछा जाए कि इनमें प्राथमिकता किनको है? ऐसे पूछने वाले उस रुष्ट व्यक्ति के समक्ष किसीका नामोल्लेख न करे। ऐसा नहीं है किन्तु यथायोग्य वचन कहे, जिससे कि उसकी आशंका का परिहार हो जाए। ६३३. किं दमओ हं भंते!, दमगस्स वि किं मे चीवरा नत्थी।
दमएण वि कायव्वो, धम्मो मा एरिसं पावे॥ यह किसके हैं-ऐसा पूछने पर कोई कहता है-भंते! क्या आप मुझे द्रमक मानकर ऐसा पूछ रहे हैं। क्या द्रमक होने पर भी मेरे पास चीवर नहीं हैं? द्रमक को भी धर्म करना चाहिए, क्योंकि पुनः मुझे ऐसा दुःख न मिले, मैं पुनः द्रमक न बनूं। ६३४. जइ रन्नो भज्जाए, व दूभगो दूभगा व जइ पइणो। ____किं दूभगो मि तुब्भ वि, वत्था वि व दूभगा किं मे॥
दुर्भग कहता है-यद्यपि में राजा की भार्या का दुर्भग-द्वेष्य हूं, परंतु क्या मैं तुम्हारा भी दुर्भग हूं? अथवा कोई महिला कहे-मैं पति की दुर्भग हूं, परन्तु क्या तुम्हारे लिए भी दुर्भग हूं? क्या मेरे ये वस्त्र भी दुर्भग हैं? ६३५. जइ रज्जाओ भट्ठो किं चीरेहिं पि पिच्छहेयाणि। ___ अत्थि महं साभरगा, मा हीरेज्ज त्ति पव्वइओ।
राजपदच्युत कहता है-यद्यपि मैं राज्य से भ्रष्ट हूं तो क्या मैं चीवरों से भी भ्रष्ट हूं? देखो, मेरे पास बहुत वस्त्र हैं। श्रमणच्छन्न कहता है मेरे पास बहुत 'साभरग' रुपये थे। राजकुल वाले आदि उनका हरण न कर लें, इसलिए मैं प्रवजित हो गया। (श्रमणच्छन्न इनमें से कोई एक हो सकता है-शाक्य, तापस, परिव्राजक, आजीवक। ये सारे श्रमण कहलाते थे।
६३६. अत्थि मे घरे वि वत्था, नाहं वत्थाई साहु ! चोरेमि।
सुट्ट मुणिअं च तुब्भे, किं पुच्छह किं व हं तेणो॥ स्तेन कहता है-साधो! मेरे घर में भी वस्त्र हैं। मैं वस्त्रों को नहीं चुराता। तुमने यथार्थरूप में पहचान लिया कि मैं चोर हूं। तुम क्यों पूछते हो कि ये वस्त्र किसके हैं ? किसी के भी हों, तुम ग्रहण करो। अथवा वह कहे-क्या मैं चोर हूं जो तुम ऐसा पूछते हो कि यह किसका है? ६३७. इत्थी पुरिस नपुंसग, धाई सुण्हा य होइ बोधव्वा।
बाले अ वुड्डयुगले, तालायर सेवए तेणे॥ 'कस्य' इसीकी द्वारान्तर प्रतिपादिका यह गाथा है-स्त्री, पुरुष, नपुंसक, धात्री, स्नुषा, बालयुगल, वृद्धयुगल, तालचर-नट, सेवक और स्तेन इनको जानना चाहिए। (यह गाथा का शब्दार्थ है। व्याख्या आगे की गाथाओं में।) ६३८. तिविहित्थि तत्थ थेरि, भणंति मा होज्ज तुज्झ जायाणं।
मज्झिम मा पइ-देवर, कण्णं मा थेर-भाईणं॥ स्त्रियों के तीन प्रकार हैं-स्थविरा, मध्यमा और कन्यका। स्थविरा दात्री को कहा जाता है ये वस्त्र तुम्हारे पुत्रों के तो नहीं हैं इसलिए हम पूछते हैं। मध्यमा को कहते हैं-ये वस्त्र तुम्हारे पति और देवर के तो नहीं हैं ? कन्यका को पूछते हैं ये वस्त्र तुम्हारे स्थविर भाई के तो नहीं है? ६३९. एमेव य पुरिसाण वि, पंडगऽपडिसेवि मा निआणं ते।
सामियकुलस्स धाई, सुण्हं जह मन्झिमा इत्थी॥ इसी प्रकार पुरुषों के भी तीन प्रकार होते हैं-स्थविर, मध्यम और तरुण। उनसे भी इसी प्रकार पूछा जाता है। नपुंसक जो अप्रतिसेवी है उसे पूछा जाता है यह तुम्हारे संबंधियों का वस्त्र नहीं है? धात्री को पूछा जाता है-यह तुम्हारे स्वामी का वस्त्र तो नहीं है? स्नुषा से पूछा जाता है यह तुम्हारे पति या देवर का वस्त्र तो नहीं है? स्नुषा मध्यमा स्त्री मानी जाती है। ६४०. दोण्हं पि अ जुयलाणं, जहारिहं पुच्छिऊण जइ पहुणो।
गिण्हंति तओ तेसिं, पुच्छासुद्धे अणुन्नायं। बालयुगल और वृद्धयुगल-दोनों युगलों को यथायोग्य पूछताछ कर यदि वे उस वस्त्र के प्रभु-स्वामी हैं तो उनसे वस्त्र लिया जा सकता है। पूछने पर शुद्ध हों तो वस्त्रग्रहण करना अनुज्ञात है। ६४१. तूरपइ दिति मा ते, कुसीलवे तेसु तूरिए मा ते।
एमेव भोगि सेवग, तेणो उ चउब्विहो इणमो॥ ६४२. सग्गाम परग्गामे, सदेस परदेसे होइ उड्डाहो।
मूलं छेओ छम्मासमेव गुरुगा य चत्तारि।।
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