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________________ पीठिका ६२३. कास पुच्छियम्मी उन्गम पक्खेवगाइणो दोसा किं आसऽपुच्छियम्मी पच्छाकम्मं पवहणं व॥ ये किसके हैं? यह पूछे बिना उदगमदोष, प्रक्षेपकदोष आदि होते हैं । 'कहां थे? यह पूछे बिना पश्चात्कर्म, प्रवहण दोष आदि होते हैं। अतः पूछ कर ग्रहण करे। ६२४, कीस न नाहिह तुम्मे, तुन्भन्नु कथं व कीय- धोयाई अमुएण व तुब्भट्ठा, ठवियं गेहे न गिण्हह से । 'यह किसका है ? यह पूछना व्यर्थ है। क्योंकि आप नहीं जानेंगे? आप पूछते हैं तो हम कहते हैं-यह वस्त्र आपके लिए ही किया है, अथवा आपके लिए ही खरीदा गया है, धोया गया है आदि अमुक व्यक्ति ने आपके लिए ही यहां स्थापित किया है, क्योंकि आप उसके घर से इसे ग्रहण नहीं करते। ६२५. तण विणण संजयट्ठा, मूलगुणा उत्तरा उ पज्जणया । गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरिमए सुद्धो ॥ संयती के लिए निर्मित वस्त्र की उत्पत्ति में ताना-बाना मूलगुण हैं। वस्त्र संबंधी उत्तरगुण हैपायनता अर्थात् वस्त्र की निष्पत्ति के पश्चात् उसको कूर्चिक से खलिका में डुबोया जाता है। तदनन्तर घृष्ट, मृष्ट, धावन, धूपन आदि दिए जाते हैं। यह सारा उत्तरगुण है। इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार है १. मुनि के लिए ताना-बाना तथा पायन । २. मुनि के लिए ताना-बाना तथा स्वयं के लिए पायन । ३. ताना-बाना स्वयं के लिए तथा पायन मुनियों के लिए । ४. ताना-बाना तथा पायन स्वयं के लिए। इनमें प्रथम तीन भंगों में गुरुक, गुरुक और लघुक प्रायश्चित्त हैं। वे तप और काल से विशेषित हैं। चरम पद शुद्ध है। ६२६. समणे समणी सावग, साविग संबंधि इड्डि मामाए । राया तेणे पक्खेवए अ निक्स्वेव जाणे ॥ श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका, संबंधीजन, ऋद्धिमान् पुरुष, मामाकसत्क भार्या, राजा, स्तेन इनसे संबंधित प्रक्षेपकदोष होता है। इन स्थानों में ही निक्षेपकदोष जानना चाहिए। यह संग्रहगाथा है। इसका अर्थ-विस्तार अगली गाथाओं में ६२७. लिंगत्थेसु अकप्पं, सावग - नीएस उग्गमासंका । इड्डि अपवेस साविग इहिस्स व उग्गमासंका ॥ ६२८. एमेव मामगस्स वि, सड्डी भज्जा उ अन्नहिं ठवए । निव तपिंडविवज्जी, मा होज्ज तदाहडं तेणे ॥ लिंगस्व अर्थात् लिंगमात्रधारी श्रमण और श्रमणी वर्ग Jain Education International ६९ द्वारा प्रदत्त वस्त्र अकल्पनीय होता है, अतः वे अन्य कुलों में उन वस्त्रों का प्रक्षेप करते हैं, जिससे कि संविग्न मुनि वहां से वह वस्त्र ले सके। इसी प्रकार श्रावक-श्राविकाएं भी अपने संबंधियों के वहां वस्त्र का प्रक्षेपण करते हैं जिससे कि उदगमदोष की शंका न हो। ऋद्धिमान् व्यक्तियों के घर में प्रवेश सहज नहीं होता। सेठ की पत्नी श्राविका है, वह अन्यत्र वस्त्रों का प्रक्षेप करती है अथवा ऋद्धिमान व्यक्ति के घर से वस्वग्रहण करने में उद्गमदोष की आशंका होती है। अतः वे अन्यत्र प्रक्षेप करते हैं। इसी प्रकार 'मामक'- मेरे घर में कोई प्रवेश न करे, ऐसे ऋद्धिमान् की पत्नी श्राविका है। वह वस्त्रदान देने के लिए वस्त्रों का अन्यत्र प्रक्षेपण करती है। तथा राजा भी वस्त्रों का अन्यत्र प्रक्षेप करता है। वह जानता है कि मुनि राजपिंड नहीं लेते, अतः उसे वैसा करना पड़ता है। मुनि स्तेनाहुत भी नहीं लेते अतः चोर भी वस्त्रों का अन्यत्र प्रक्षेपण करते हैं। ये सारे प्रक्षेपण के स्थान हैं। ६२९. एए उ अधिप्पंते, अन्नहिं सन्निक्खिवंति समणा । निक्खेवओ वि एवं, छिन्नमछिन्नो उ कालेण ॥ इन कारणों से श्रमण आदि वस्त्र ग्रहण न करने पर अन्यत्र उन वस्त्रों का श्रमणों के लिए निक्षेपण किया जाता है। यह प्रक्षेपण है। प्रक्षेपण और निक्षेपण में क्या अन्तर है यह पूछे जाने पर आचार्य कहते हैं केवल साधुओं के लिए ही वस्त्रों को स्थापित करना प्रक्षेपण है और पहले स्वयं के लिए स्थापित कर फिर साधुओं के लिए अनुज्ञा देना निक्षेपण है। अतः प्रक्षेपक की भांति निक्षेपक को भी जानना चाहिए। वह निक्षेपक काल से छिन्न अथवा अछिन्न-दोनों प्रकार का होता है। ६३०. अमुगं कालमणागए, दिज्जह समणाण कप्पई छिन्ने । पुण्ण समकाल कप्पड़, ठवियगदोसा अईअम्मि ॥ कोई देशान्तर जाते समय किसी के घर पर वस्त्रों का निक्षेपण करते हुए कहता है मैं यदि अमुक काल के अंतर्गत न लौट सकूं तो ये वस्त्र श्रमणों को दान में देना ।' वे वस्त्र श्रमणों के लिए कल्पनीय हैं। यह छिन्न निक्षेपण है। प्रश्न होता है क्या यह सदा कल्पता है ? इसके उत्तर में गुरु कहते हैं - वह वस्त्र काल की अवधि पूर्ण होने के समकाल में ही कल्पता है, बाद में नहीं क्योंकि विवक्षित काल की अवधि अतीत हो जाने पर स्थापितदोष होते हैं। अच्छिन्न निक्षेपण में जब भी वस्त्र दिया जाता है तब कल्पता है। ६३१. असिवाइकारणेहिं, पुणाईए मन्ननिक्वे । परिभुजति ठविंति व छहिंति व ते गए नाउं ॥ अशिव आदि कारणों से देशांतर में विहार करने वाले For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.arg
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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