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-बृहत्कल्पभाष्यम्
६१४. लढ्ण अन्न वत्थे, पोराणे सो उ देइ अन्नस्स।
सो वि अ निच्छइ ताई, भावुझियमधमाईयं ।। अन्य वस्त्र प्रासकर, पुराना वस्त्र दूसरे को दे देना, और दूसरा व्यक्ति भी उन वस्त्रों को न चाहे, यह भावोज्झित है। यहां जीर्णता आदि भाव है। यह चौथी वस्त्रप्रतिमा है। ६१५. जं जस्स नत्थि वत्थं, सो उ निवेएइ तं पवत्तिस्स।
सो वि गुरूणं साहइ, निवेइ वावारए वा वि॥ जिस मुनि के पास जो वस्त्र नहीं है, वह प्रवर्तक को निवेदन करता है। वह प्रवर्तक भी आचार्य को निवेदन करता है। आचार्य भी वस्त्र आभिग्रहिक मुनि को वस्त्र विषयक बात कहते हैं। आभिग्रहिक मुनि के अभाव में वे वस्त्रोत्पादन समर्थ मुनि को वस्त्र लाने लिए व्यापृत करते हैं। ६१६. भिक्खं चिय हिंडंता, उप्पायंतऽसइ बिइअ पढमासु।
एवं पि अलब्भंते, संघाडेक्केक्क वावारे॥ भिक्षा के लिए घूमते हुए वस्त्र का उत्पादन करे। यदि उस समय वस्त्र-लाभ न हो तो दूसरे प्रहर में वस्त्र-लाभ का प्रयत्न करे। यदि उस समय भी प्राप्त न हो तो प्रथम प्रहर में वस्त्र की गवेषणा करे। यदि इस प्रकार भी वस्त्र की प्राप्ति न हो तो एक-एक संघााटक को वस्त्र लाने के लिए व्याप्त करे। ६१७. एवं पि अलब्भंते, मुत्तूण गणिं तु सेसगा हिंडे।
गुरुगमणे गुरुग ओहामऽभियोगो सेहहीला य॥ इस प्रकार भी यदि वस्त्र-लाभ न हो तो आचार्य को छोड़कर शेष सभी मुनि वस्त्र प्राप्त करने के लिए घूमें। यदि गुरु स्वयं जाते हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। लोग कहने लगते हैं-ओह! आचार्य भी साधुओं की भांति घूमते रहते हैं। कोई स्त्री आचार्य पर 'कार्मण' भी कर देती है। गुरु को वस्त्र-प्राप्ति न होने पर शैक्षों में गुरु के प्रति अवहेलना होती है। ६१८. सव्वे वा गीयत्था, मीसा व जहन्न एक्कु गीयत्थो।
इक्कस्स वि असईए, करिति तो कप्पियं एक्वं॥ यदि वस्त्र प्राप्ति के लिए घूमने वाले सभी गीतार्थ हों अथवा गीतार्थ-अगीतार्थ मिश्र हों तब जघन्यतः एक गीतार्थ के नेतृत्व में सब घूमे। यदि एक भी मुनि गीतार्थ न हो तो गुरु जो मुनि लब्धिसंपन्न है उसको वस्त्र-कल्पिक की शिक्षा । देकर भेजते हैं। ६१९. आवाससोहि अखलंत समग उस्सग्ग दंडग न भूमी।
पुच्छा देवय लंभे, न किंपमाणं धुवं दाहि॥ गमन से पहले वह मुनि आवश्यकशोधि अर्थात् कायिकी का व्युत्सर्ग अवश्य करे। फिर अस्खलित होता हुआ उठे।
सभी एक साथ उठे और एक साथ कायोत्सर्ग करे। तदनन्तर दंडक को भूमी पर तब तक न रखे जब तक कि प्रथम लाभ न हो। शिष्य पूछता है कायोत्सर्ग करने का प्रयोजन क्या है? क्या कायोत्सर्ग इसीलिए किया जाता है कि देवता प्रसन्न होकर वस्त्रों का उत्पादन करा देगा? अथवा कायोत्सर्ग के प्रभाव से ही वस्त्र-लाभ होगा? आचार्य ने कहा-कायोत्सर्ग करने का यह प्रयोजन नहीं है। इसका एक मात्र निमित्त है उपयोग। कितने प्रमाण में वस्त्र लाना है? उसकी याचना करने पर स्वामी अवश्य देगा। जब यह जान लिया जाता है कि वह अवश्य देगा, तब सबसे पहले उसी के पास पहले याचना की जाती है। ६२०. रायणिओ उस्सारे, तस्ससतोमो वि गीतो लद्धीओ।
अग्गीतो वि सलद्धी, मग्गइ इअरे परिच्छंति॥ सबसे पहले रात्निक कायोत्सर्ग संपन्न करता है। रात्निक के अभाव में जो अवम लघुरात्निक हो, जो गीतार्थ और सलब्धिक हो, वह पहले कायोत्सर्ग संपन्न करे। गीतार्थ के अभाव में जो सलब्धिक अगीतार्थ हो वह कायोत्सर्ग संपन्न कर वस्त्र की मार्गणा के लिए, दूसरों को साथ लेकर जाए। दूसरे गीतार्थ वस्त्रग्रहण संबंधी परीक्षा करते हैं। (क्या कल्पता है, या नहीं आदि)। ६२१. उस्सग्गाई वितह, खलंत अण्णोण्णओ अ लहओ उ।
उग्गम विप्परिणामो, ओभावण सावगं न तओ।। ६२२. दाउं व उड्डरुस्से, फासुवरियं तु सो सयं देइ।
भावियकुलओभासण, नीणिइ कस्सेअ किं आसी।।
जो मुनि कायोत्सर्ग आदि सभी पदों में सामाचारी का विपरीत आचरण करते हैं, स्खलित होकर उठते हैं, साथ नहीं जाते, एक-एक कर जाते हैं इन सब में एक-एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वस्त्र की याचना करने पर उपासक हर्षातिरेक से वस्त्र दे देता है। फिर अभिनव वस्त्रों के लिए उद्गम आदि दोषों का सेवन करता है। कोई अभिनव उपासक विपरिणत भी हो जाता है। कदाचित वस्त्र की अप्राप्ति होने पर दूसरे लोग उसकी अपभ्राजना करते हैं। वे कहते हैं-इन साधुओं के श्रावक भी वस्त्र नहीं देते तो दूसरा कौन देगा? वह श्रावक लोकलज्जावश वस्त्र देकर साधुओं के प्रति प्रद्विष्ट हो जाता है। साधुओं को उपासक प्रासुक और बचे हुए वस्त्र स्वयं दे देता है। मुनि भावितकुल वाले उपासकों से ही वस्त्र की याचना करे। उसके द्वारा वस्त्र लाने पर पूछे-ये वस्त्र किसके हैं? कहां थे?
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