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पीठिका
मध्यम के ग्रहण में एक मास का और जघन्य के ग्रहण में पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त विहित है। वस्त्र के विपर्यस्तग्रहण और करण में स्वस्थान प्रायश्चित्त विहित है। ६०७. जोगमकाउमहागडे, जो गिण्हइ दोन्नि तेसु वा चरिमं।
लहुगा उ तिन्नि मज्झम्मि मासिआ अंतिम पंच॥ यथाकृतवस्त्र विषयक उद्यम किए बिना ही जो दो प्रकार के अर्थात् अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म वस्त्र ग्रहण करता है, यथाकृत वस्त्र की प्राप्ति न होने पर अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म-दो प्रकार के वस्त्रों में से सपरिकर्म वस्त्र ग्रहण करता है, उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य-इन तीन प्रकार के आधार पर उपरोक्त तीनों स्थानों में क्रमशः यह प्रायश्चित्त है। उत्कृष्ट से संबंधित तीनों प्रकार में तीन चतुलघु, मध्यम से संबंधित तीनों प्रकार में तीन मासिक, और जघन्य में तीन पांच रात-दिन (यथाकृत आदि के विपर्यास से संबंधित यह प्रायश्चित्त है।) ६०८. एगयरनिग्गओ वा, अन्नं गिण्हिज्ज तत्थ सट्ठाणं।
छित्तूण सिव्विऊण व, जं कुणइ तगं न जं छिंदे॥ उत्कृष्ट आदि में से जो किसी एक को प्राप्त करने के लिए निर्गत होता है वह दूसरा ही ग्रहण करता है तो उसे स्वस्थानप्राप्त प्रायश्चित्त आता है। जो उत्कृष्ट आदि वस्त्र को ग्रहण कर उसे फाड़कर अथवा सीकर मध्यम आकार का करता है, उसे उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। छिद्यमान अथवा सीव्यमान वस्त्र विषयक प्रायश्चित्त नहीं
आता। ६०९. उद्दिसिय पेह अंतर, उन्झियधम्मे चउत्थए होइ।
चउपडिमा गच्छ जिणे, दोण्हऽग्गहऽभिग्गहऽन्नयरा॥ गच्छवासी मुनियों की वस्त्र ग्रहण प्रतिमाएं चार हैं१. उद्दिष्टवस्त्रप्रतिमा ३. अन्तरावस्त्रप्रतिमा २. प्रेक्षावस्वप्रतिमा ४. उज्झितवस्त्रप्रतिमा। जिनकल्पिक मुनियों की दो प्रतिमाएं हैं-उद्दिष्ट तथा प्रेक्षा। इन दो का ही स्वीकार है, शेष दो का नहीं। यदि शेष दो में से किसी एक का अभिग्रह हो तो-तीसरे विकल्प का अभिग्रह हो तो चौथा नहीं और चौथा हो तो तीसरा नहीं। ६१०. उद्दिट्ठ तिगेगयरं, पेहा पुण दट्ट एरिसं भणइ।
अन्न नियत्थऽत्थुरिए, इतरऽवर्णितो उ तइयाए। ६११. दव्वाइ उज्झियं दव्वओ उ थूलं मए न घेत्तव्वं।
दोहि वि भावनिसिटुं, तमुज्झिओभट्ठऽणोभट्ठ॥ उद्दिष्ट अर्थात् गुरु के समक्ष प्रतिज्ञात। तीन प्रकार में से १. काषायी वस्त्र स्वभावतः अतिशीतल होते हैं। वे ग्रीष्म ऋतु में भी
सकल-संताप का निवारण करने वाले होते हैं। कहा भी है
किसी एक उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य अथवा एकेन्द्रियनिष्पन्न, विकलेन्द्रियनिष्पन्न अथवा पंचेन्द्रियनिष्पन्न को ग्रहण करने की प्रतिमा। यह है उद्दिष्टवस्त्रप्रतिमा। दूसरी है--प्रेक्षावस्त्रप्रतिमा। वस्त्र को देखकर मुनि कहे कि यही वस्त्र अथवा इसी प्रकार का वस्त्र मुझे दो। तीसरी है-अंतरावस्त्रप्रतिमा। (उसकी व्याख्या अंतरीय अथवा उत्तरीय वस्त्रयुगल से करणीय है।) अथवा नियत्थ-परिहित या प्रावृत वस्त्र तथा 'अत्थुरिए-आस्तीर्ण वस्त्र। पुराने अंतरीय और उत्तरीय वस्त्रयुगल को निकाल कर दूसरे वस्त्रयुगल को रखने की इच्छा से जो याचना की जाती है वह तीसरी वस्त्रप्रतिमा है।
चौथी वस्त्र प्रतिमा है-उज्झित वस्त्र की गवेषणा करना। द्रव्यादि उज्झित अर्थात् द्रव्योज्झित, क्षेत्रोज्झित, कालोज्झित
और भावोज्झित। द्रव्योज्झित जैसे किसी गृहस्थ ने यह प्रतिज्ञा की कि मैं स्थूल वस्त्र ग्रहण नहीं करूंगा। किसी मित्र ने उसे स्थूल वस्त्र उपहृत किया। उसने लेने से मनाही कर दी। मित्र ने कहा-मैं वापस नहीं लूंगा। यह दायक और ग्राहक दोनों द्वारा भावतः निसृष्ट अर्थात् परित्यक्त है। यह द्रव्यतः उज्झित कहा जाता है। अथवा जिनकल्पिक द्वारा बिना याचना किए अथवा याचना करने पर जो मिलता है वह द्रव्योज्झित है। ६१२. अमुगिच्चगं न भुंजे, उवणीयं तं च केणई तस्स।
जं वुझे कप्पडिया, सदेस बहुवत्थ देसे वा॥ किसी ने प्रतिज्ञा की-मैं अमुकदेश के वस्त्र का उपभोग नहीं करूंगा। मित्र ने उसी देश का वस्त्र उसे उपहृत किया। उभय द्वारा परित्यक्त (पूर्व गाथावत्) वह वस्त्र क्षेत्रोज्झित है। कार्पटिक आदि अपने देश के प्रति लौटते हुए या देशांतर के प्रति प्रस्थित होते हुए अथवा प्रचुर वस्त्र वाले देश में जाते समय जिन वस्त्रों को वहीं छोड़ जाते हैं वे वस्त्र भी क्षेत्रोज्झित कहलाते हैं। ६१३. कासाइमाइ जं पुव्वकालजोग्गं तदन्नहिं उज्झे।
होहिइ व एस्सकाले, अजोग्गयमणागयं उज्झे॥ काषायिक (गंधकाषायिक) आदि वस्त्र जो पूर्वकालग्रीष्म आदि ऋतुओं में उपयोगी थे, वे अन्यकाल में उपयोगी नहीं रहे। उनका परित्याग कर देना कालोज्झित है। अथवा ये वस्त्र भविष्यकाल में अनुपयोगी हो जायेंगे। यह सोचकर उनका पहले ही त्याग कर देना यह भी कालोज्झित कहलाता है।
सरसो चंदणपंको, अग्घइ सरसा य गंधकासाई। पाडल सिरीस मल्लिय, पियाई काले निदाहम्मि। (बृ. पृ. १८१)
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