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________________ ६६ बृहत्कल्पभाष्यम् मास और दो वर्षावास अर्थात आठ मास का वर्जन किए बिना आधार पर शय्या के परिहरण का ज्ञाता है, वह शय्या-ग्रहण पुनः उसी शय्या में रहा जाता है तो वह उपस्थान शय्या कल्पिक है। कहलाती है। ६०१. उग्गम-उप्पायण-एसणाहिं सुद्धं गवेसए वसहिं। ५९६. जावंतिया उ सेज्जा, अन्नेहिं निसेविया अभिवंता। तिविहं तीहिं विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेणं ।। अन्नेहि अपरिभुत्ता, अनभिक्वंता उ पविसंते॥ उद्गम, उत्पादन और एषणा-इन तीनों से शुद्ध वसति जो वसति यावन्तिका सार्वजनिक हो और वह चरक की गवेषणा करे। खात आदि के भेद से तीन प्रकार की आदि पाषंडी तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा परिसेवित हो, वहां वसति का जो उद्गम आदि से अशुद्ध हो, उनका तीन करण यदि साधु ठहरते हैं तो वह अभिक्रान्त शय्या है। जो शय्या तीन योग से अर्थात् नौ भेदों से परिहार करना चाहिए। अन्य व्यक्तियों द्वारा अभुक्त हो, वह साधुओं के लिए ६०२. पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति। अनभिक्रांत शय्या है। आलोयणमायरिये, आयरिओ विसोहिकारो से॥ ५९७. अत्तट्ठकडं दाउं, जतीण अन्नं करेंति वज्जा उ। जिसने ओघनियुक्ति अथवा इस कल्प-पीठिका को पढ़ा है, ___ जम्हा तं पुव्वकर्य, वज्जति ततो भवे वज्जा॥ अथवा सुना है अथवा गुणित-अभ्यास किया है अथवा अगुणित जो गृहस्थ अपने लिए कृत वसति को मुनियों को देकर, है, धारित है अथवा अधारित है, फिर भी उपयुक्त होकर शय्या स्वयं के लिए अन्य वसति तैयार करवाता है तो मुनियों को का परिभोग करता है, वह शय्याकल्पिक है। उसके इस दी गई वसति वयं होती है। गृहस्थ उस पूर्वकृत वसति का विषयक कोई विराधना होती है तो वह आचार्य आदि से वर्जन करते हैं, क्योंकि वह मुनियों को दे दी गई है, इसलिए आलोचना करे। आचार्य उसके विशोधिकारक होते हैं। वह वयं कहलाती है। ६०३ नामं ठवणा वत्थं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । ५९८. पासंडकारणा खलु, आरंभो अभिणवो महावज्जा। एसो खलु वत्थस्स उ, निक्खेवो चउब्विहो होइ। समणट्ठा सावज्जा, महसावज्जा उ साहूणं॥ वस्त्र के चार प्रकार हैं-नामवस्त्र, स्थापनावस्त्र, द्रव्यजो वसति पाषंडियों के लिए नए रूप में निर्मित की जाती वस्त्र तथा भाववस्त्र। इस प्रकार वस्त्र के चार प्रकार का है वह महावय॑ वसति है। पांच प्रकार के श्रमणों के लिए निक्षेप है। निर्मित वसति सावद्य और साधुओं के लिए निर्मित वसति ६०४. दव्वे तिविहं एगिदि-विगल-पंचेंदिएहिं निप्फन्नं। महासावध कहलाती है। सीलगाइं भावे, दव्वे पगयं तदट्ठाए। ५९९. जा खलु जहुत्तदोसेहिं वज्जिया कारिया सअट्ठाए। द्रव्यवस्त्र के तीन प्रकार हैं-एकेन्द्रियनिष्पन्न, विकलेन्द्रिय परिकम्मविप्पमुक्का, सा वसही अप्पकिरिया उ॥ निष्पन्न तथा पंचेन्द्रियनिष्पन्न। भाववस्त्र है-अठारह हजार जो वसति यथोक्त दोषों से वर्जित है और जो स्वयं के शीलांग। इन अठारह हजार शीलांगों से साधु नित्य प्रावृत रहते लिए निर्मित है, जो परिकर्म से विप्रमुक्त है, वह अल्पक्रिया । है, इसलिए ये भाववस्त्र हैं। यहां द्रव्यवस्त्र का अधिकार है। यह वसति होती है। द्रव्यवस्त्र भाववस्त्र के लिए होता है। ६००. हिट्टिल्ला उवरिल्लाहि बाहिया न उ लंभति पाहन्नं। ६०५. पुणरवि दव्वे तिविहं, जहण्णगं मज्झिमं च उक्कोसं। पुव्वाणुन्नाऽभिणंव, च चउसु भय पच्छिमाऽभिणवा॥ एक्कक्कं तत्थ तिहा, अहाकड-ऽप्पं सपरिकम्म। एक दूसरे से नीचे वाली वसतियां उपरितन वसतियों से द्रव्यवस्त्र के तीन प्रकारों में प्रत्येक तीन-तीन प्रकार का बाधित होती हैं। वे प्राधान्य को प्राप्त नहीं होती। इन नौ है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। इनमें प्रत्येक तीन-तीन प्रकार की शय्याओं में पूर्व-पूर्व की अनुज्ञा है। चार प्रकार की प्रकार का होता है-यथाकृत, अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म। शय्याओं (अनभिक्रांत, वर्ण्य, महावय॑ और सावद्य) में ६०६. चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंच य जहन्ने। अभिनव दोष की भजना है। पश्चिम शय्या अर्थात् महासावद्य वोच्चत्थगहण-करणे, तत्थ वि सट्ठाणपच्छित्तं॥ शय्या में अभिनवदोष होते ही हैं। जो इन सभी दोषों के उत्कृष्टवस्त्र ग्रहण में विपर्यास होने पर चारमास का, १. मतान्तर के अनुसार जहां एक वर्षावास बिता चुके हों तो दो वर्षावास वर्षावासं स्थितास्तस्यां द्वौ वर्षारात्रावन्यत्र कृत्वा यदि अन्यत्र बिताकर यदि पुनः पूर्व स्थान में वर्षावास बिताया जाता है तो समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना न भवति, अर्वाक् तिष्ठतां वह उपस्थान शय्या नहीं होती, पहले जो ठहरे हों उनके वह पुनरूपस्थापना। (वृ. पृ. १७२) 'उपस्थापना' शय्या होती है-अन्ये पुनरिदमाचक्षते-यस्यां वसतौ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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