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पीठिका
सर्वतः करने पर चारलघुक का प्रायश्चित है। संमार्जन में यदि सचिन शाखा, कुश आदि जो छिन्नमात्र हैं, उनका देशतः अथवा सर्वतः संमार्जन करने पर चारलघु का प्रायश्चित आता है।
५८७. मूलुत्तरचभंगो, पढमे बीए व गुरुग सविसेसा । तयम्मि होइ भयणा, अत्तटुकडो चरम सुद्धो ॥ वसति का मूलकरण और उत्तरकरण ( गाथा ५८२,५८३) से संबंधित चतुभंगी है
(१) साधु के मिमित्त मूलकरण और उत्तरकरण करना । (२) साधु के निमित्त मूलकरण और उत्तरकरण स्वयं के लिए।
(३) स्वयं के निमित्त मूलकरण और उत्तरकरण साधु के लिए इसमें भजना होती है।
(४) दोनों स्वयं के निमित्त करना ।
प्रथम भंग का प्रायश्चित्त है-तप और काल से गुरु चार गुरुमास दूसरे भंग का प्रायश्चित है-तप से गुरु, काल से लघु चार गुरुमास तीसरे भंग का प्रायश्चित्त है इसमें उत्तरकरण यदि विशोधिकोटि वाला है तो तप से लघु काल से गुरू चार गुरुमास यदि अप्रासूक से देशतः अथवा सर्वतः परिकर्म करने पर चार लघुमास । प्रासुक से देशतः मासलघु और सर्वतः चार लघुमास चौथा भंग शुद्ध है। ५८८. पुढवि दग अगणि हरियग, तसपाण सागारियादि संसत्ता । बंभवयआदि दंसणविराहिगा पच्चवाया
उ ॥
जो शय्या पृथ्वी, उदक, अग्नि, हरित, सप्राणियों तथा सामारिक आदि से संसक्त होती है तथा ब्रह्मव्रत आदि तथा दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व की विराधिका होती है, वह सप्रत्यवाय शय्या कहलाती है।
५८९. कासु उ संसत्ते, सचित्त-मीसेसु होइ सट्टाणं । सागारियसंसत्ते, लहुगा गुरुगा य जे जत्थ॥ सचित्त अथवा मिश्र पृथिवी आदि काय से संसक्त शय्या में रहने से स्वस्थाननिष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पुरुषों से संसक्त शय्या में रहने से निर्ग्रथों को चार लघुक तथा स्त्रीसंसक्त शय्या में रहने से चार गुरुक का प्रायश्चित्त विहित है। साध्वी यदि स्त्रीसंसक्त उपाश्रय में रहे तो चार लघु और पुरुषसंसक्त उपाश्रय में रहे तो चार गुरु का प्रायश्चित्त आता है।
५९०, गुरुगा बंभावाए, आयाए चेव दंसणे लहुगा ।
आणादिणो विराहण, भवंति एक्वेक्कगपयाओ ॥ बहावत और आत्मप्रत्यवाय वाले उपाश्रय में रहने पर चार गुरुमास का तथा दर्शनप्रत्यवाय वाले उपाश्रय में रहने
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पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। एकैक पद से आज्ञाभंग आदि विराधनाएं होती हैं। ये सारे प्रायश्चित्त के साथ समायोजनीय हैं।
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५९१. तिरिय - मणुइत्थियातो, बंभावातो उ तिविह पडिमातो । अहिबिल चलंतकुड्डादि एवमादी उ आयाए । ५९२. आगाढमिच्छविडी सव्वातिहि मरुग बहुजणड्डाणा । पासंडा य बहुविहा, एसा खलु दंसणावाया ॥ जिस उपाश्रय में तियंचस्त्रियां, मनुष्यस्त्रियां अथवा तीन प्रकार की प्रतिमाएं हों-मनुष्यस्त्री की प्रतिमा, तियंचस्त्री की प्रतिमा या वेवस्त्री की प्रतिमा ये सारे ब्रह्मचर्य के प्रत्यवाय हैं। वहां रहने पर ब्रह्मचर्य का विनाश संभव है।
जहां उपाश्रय में सर्पों के बिल हो अर्थात् बिलों में सप का निवास हो, जहां भीतें आदि हिल रही हो ये आत्मप्रत्यवाय के साधन है जहां आगाद मिध्यादृष्टि रहते हो, सभी प्रकार के अतिथि याचक आदि आते हों, जहां मरुकबटुक आदि रहते हों, जो अनेक मनुष्यों का स्थान हो (देशिककुटी आदि), जहां बहुत प्रकार के पाखंड रहने होंऐसी वसति दर्शनप्रत्यवाय वाली होती है। ५९३. कालातितीवद्वाण अभिकंत
अणभिकंता य। वज्जा य महावज्जा, सावज्ज महऽप्पकिरिया य ।। शय्या के नौ प्रकार हैं
१. कालातिक्रान्त
४. अनभिक्रान्त ७. सावध ५. वर्ज्य
८. महासावद्य
२. उपस्थान ३. अभिक्रान्त
६. महावर्ण्य
९. अल्यक्रिया ५९४. कालातीते लहुगो, चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु । गुरुगा तिसु जमलपया, अप्पकिरियाए सुद्धो ॥ कालातिक्रान्त शय्या में ऋतुबद्ध काल में रहने पर मासलघु और वर्षाकाल में रहने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। चार स्थानों अर्थात् उपस्थान, अभिक्रांत तथा वर्ज्य शय्या में ठहरने पर प्रत्येक का चार-चार लघुमास का प्रायश्चित्त तथा तीन अर्थात् महावज्र्ज्य, सावध तथा महासाद्य शय्या में ठहरने पर प्रत्येक का चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। यह 'यमलपद' अर्थात् तप और काल से विशेषित है। 'यमलपद' यह तप और काल की द्योतक संज्ञा है अल्पक्रिया वाली शय्या शुद्ध है।
५९५. उउ-वासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेज्जा ।
स च्चेव उवट्ठाणा, दुगुणा दुगुणं अवज्जेत्ता ॥ जहां ऋतुबद्ध काल में तथा वर्षावास में रहा जाता है वह कालातिक्रांत वसति है। जहां दो ऋतुबद्ध काल अर्थात् दो
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