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भणामि ॥ संगारो ।
५७७. अन्नकुल- गोत्तकरणं, पत्तेसु वि भीयपरिस पेल्लेह पुव्वं अभीयपरिसे, भणाति लज्जाए न ५७८. जा ताव ठवेमि वए पत्ते कुलादिछेय मा सिं हीरे उवहिं अच्छह जा सिं निवेएमि ॥ कुछ ज्ञातिजन स्थान पर आकर पूछे तो अपना कुल और नाम गुप्त रखकर अन्य कुल और नाम बताए । यदि वे पहचानते हों और भयभीत होने वाले हों तो उनको भय दिखाते हुए कहे में राजकुल में शिकायत कर आपको बंधनग्रस्त करा दूंगा। इतने पर भी वे न डरें तो उनसे कहे- 'मेरी इच्छा भी भी उत्क्रमण करने की है, परन्तु लज्जावश मैं कह नहीं सकता। साधु बाहर से आ जायेंगे तो उनके सामने व्रतों को छोड़ दूंगा। आप कुछ रुकें। मैं उनको भी अपनी बात निवेदित कर दूंगा।' वह मुनि यह प्रपंच इसलिए भी करता है कि शून्य वसति को देखकर कोई उपकरणों का अपहरण न कर ले।
साधुओं के आने पर वह मुनि उपाश्रय की भींत के छिद्र को गिराकर, यह संकेत देता हुआ कि मुझे अमुक स्थान पर खोज लेना, पलायन कर जाता है।
५७९. खंधारादी नाउं इयरे वि तहिं दुयं समभिएंति ।
अप्पाहेई तेसिं, अमुगं अमुगं कज्जं दुयं एह ॥ दूसरे मुनि भी स्कंधावार आदि की बात सुनकर वहां शीघ्र ही एकत्रित हो जाते हैं। वह वसतिपाल मुनि उन मुनियों को यह संदेश भेजता है- अमुक प्रयोजन प्रस्तुत हो गया है, आप जल्दी आएं।
५८०. दुविहकरणोवघाया, संसत्ता पच्चवाय सिज्जविही । जो जाणति परिहरिडं, सो महणे कप्पितो होति ॥ वसति का करण दो प्रकार का है-मूलकरण और उत्तरकरण इन दोनों से उपघात अर्थात् मूलकरणोपहत और उत्तरकरणापहत वाली वसति तथा पृथ्वीकाय आदि से संसक्त, प्रत्यवाय- बाधा उपस्थित करने वाली इन दोषों का परिहार करना जो जानता है, तथा शय्याविधि का ज्ञाता है, वह शय्याग्रहणकल्पिक होता है।
५८१. सत्तेव य मूलगुणे, सोही सत्तेव उत्तरगुणेसु
संसत्तम्मिय छ, लहु-गुरु-लघुगा चरम जाव ॥ सात प्रकार के मूलगुणों की शोधि और सात प्रकार से ही उत्तरगुणों की शोधि होती है। उपाश्रय के संसक्त होने पर छह प्रकार से शोधि करनी चाहिए। यदि ऐसे उपाश्रय में रहा जाता है तो लघु, गुरु, लघुक से चरम पर्यन्त प्रायश्चित्त जानना चाहिए।
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बृहत्कल्पभाष्यम
५८२. पट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीतो । मूलगुणेहिं उवहया, जा सा आहाकडा वसही ॥ वसति के सात मूलकारण ये हैं उपरितन तिरछा दिया हुआ पृष्ठवंश, दो मूलधारण जिन पर पृष्ठवंशा तिरछा स्थापित किया जाता है और चार मूलवेलियां जो दोनों मूलधारणाओं के दोनों ओर दी जाती हैं। जो वसति इन मूलगुणों से उपहत होती है वह आधाकर्मिक वसति है।
५८३. वंसग कडणोक्कंचण छावण लेवण दुवार भूमी य।
सप्परिकम्मा वसही, एसा मूलोत्तरगुणेसु ॥ वसति के सात उत्तरकरण-वेली के ऊपर बांस स्थापित करना, पृष्ठवंश पर तिरछेरूप से 'कट' देकर आच्छादित करना, उसके ऊपर कंबिकाओं को बांधना, छादन-दर्भ आदि से आच्छादित करना, लेपन भीतों को लीपना, द्वार की अदला-बदली करना, भूमी को सम करना - यह सात प्रकार का उत्तरकरण हैं। मूलकरण और उत्तरकरण की हुई वसति सपरिकर्मा होती है।
५८४. दूमिय धूविय वासिय, उज्जोविय बलिकडा अवत्ता य सित्ता सम्मट्ठा वि य, विसोहिकोडी कया वसही ॥ मतान्तर से अन्य उत्तरकरण ये हैं
बूमित चूने आदि से भीतों को धवलित करना । धूपित-गंध धूप से धूपित करना ।
• वासित वसति को सुगंधित करना । • उद्योतित करना ।
• बलिकृत ।
• अवत्त अर्थात् आंगन को गोबर आदि से लिप्त करना । • सिक्त करना - पानी छिड़कना ।
• संमार्जन करना-बुहारी से साफ करना ।
- इन उत्तरगुणों से कृत वसति विशोधिकोटि की होती है । ५८५. अप्फासुण देसे, सव्वे वा दूमियादि चउलहुगा ।
अप्फासु धूमजोती, देसम्मि वि चउलहू होंति ॥ ५८६. सेसेस फासणं, देसे लहु सव्वहिं भवे लहुगा ।
सम्मज्जण साह कुसादि छिनमेतं तु सच्चित्तं ॥ देशतः अथवा सर्वतः अप्रासुक दुमित आदि की गई वसति में रहने पर प्रत्येक क्रिया का चार-चार लघुक प्रायश्चित्त विहित है। अगरु आदि से वसति को देशतः धूपित करना, दीपक जलाकर उद्योतित करना चारलघुक का प्रायश्चित आता है।
शेष अर्थात् भूपित और उद्योतित को छोड़कर दुमिल, वासित आदि में देशतः प्रासुक करने पर मासलघु और
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