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७७४. एहि भणिओ उ बच्चइ, वच्चसु भणिओ दुतं समल्लिया।
जं जह भण्णति तं तह, अकरेंतो वामवट्टो उ॥ 'आओ' कहने पर जो चला जाता है, 'जाओ' कहने पर जो शीघ्र ही आकर पास में बैठ जाता है। जिस कार्य को जैसे करने के लिए कहा जाता है, उसको वैसे न करने वाला वामावर्त्त कहलाता है। ७७५. पीईसुण्णण पिसुणो, गुरुगाइ चउण्ह जाव लहुओ उ।
अहव असंतासंते, लहुगा लहुगो गिही गुरुगा॥ जो प्रीति को शून्य करता है वह पिशुन होता है। जो गुरु के प्रति पैशून्य करता है, उसे चतुर्गुरु तथा उपाध्याय आदि के प्रति पिशुनता करने पर चतुर्लघु आदि प्रायश्चित्त आता है। अथवा असदूषण विषयक पैशून्य में चार लघु, सदूषण में लघुमास का प्रायश्चित्त है। गृहस्थ विषयक ये ही प्रायश्चित्त गुरुक हो जाते हैं। ७७६. आवासगमाईया, सूयगडा जाव आइमा भावा।
ते उ न दिट्ठा जेणं, अदिट्ठभावो हवइ एसो॥ आवश्यकसूत्र से सूत्रकृतांग पर्यन्त जो अभिधेय हैं वे आदिम--अदृष्ट भाव कहलाते हैं। जिस मुनि ने इनको नहीं जाना है वह अदृष्टभाव कहलाता है। ७७७. दुविहा सामायारी, उवसंपद मंडली' बोधव्वा।
अणालोइयम्मि गुरुगा, मंउलिमेरं अतो वोच्छं॥ सामाचारी के दो प्रकार हैं-उपसंपदा में होने वाली तथा मंडली में होने वाली। गच्छान्तर से उपसंपदा के लिए आने वाले मुनि को अनेक प्रश्न पूछे जाते हैं। यह उपसंपदा की सामाचारी है। जो आचार्य अनालोचित रूप में उपसंपदा देता है उसे चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। आगे मंडलीमेरा अर्थात् मंडली की सामाचारी कहूंगा। ७७८. सुत्तम्मि होइ भयणा, पमाणतो यावि होइ भयणा उ।
अत्थम्मि उ जावइया, सुणिंति थेवेसु अन्ने वि ॥ सूत्रमंडली में निषद्या की भजना है। यह भजना प्रमाणतः होती है-कभी दो, तीन, चार निषद्याएं भी होती हैं। अर्थमंडली में जितने मुनि अर्थ सुनते हैं वे सभी अपना-अपना कल्प निषद्याकारक को देते हैं। यदि अनुयोग ग्रहण करने वाले कम हों तो अन्य मुनि, जो अनुयोग को नहीं सुनते हैं, वे भी कल्प देते हैं। ७७९. मज्जण निसिज्ज अक्खा, किइकम्मुस्सग्ग बंदणग जेठे।
परियाग जाइ सुअ सुणण समत्ते भासई जो उ॥ पहले अनुयोगमंडली का प्रमार्जन, निषद्या की रचना, अक्षों की स्थापना, कृतिकर्म, कायोत्सर्ग, ज्येष्ठ को वंदना करनी चाहिए। जिज्ञासु पूछता है-ज्येष्ठ कौन? पर्याय से
-बृहत्कल्पभाष्यम् ज्येष्ठ अथवा जाति से अथवा श्रुत से अथवा अनेक परिपाटियों द्वारा अर्थश्रवण से ज्येष्ठ होता है ? आचार्य कहते हैं-वही ज्येष्ठ है जिसका व्याख्यान समर्थित होता है और जो अग्रणी होकर चिन्तनिका कराता है। ७८०. अवितहकरणे सुद्धो, वितह करेंतस्स मासियं लहुगं। ___ अक्ख निसिज्जा लहुगा, सेसेसु वि मासियं लहुगं॥
जो प्रमार्जन आदि पदों को अवितथरूप में करता है वह शुद्ध है। जो इनको वितथ करता है उसे मासिक का प्रायश्चित्त आता है। अक्षों की अस्थापना करने, गुरु की निषद्या न करने पर चार लघुक तथा शेष सभी में मासिक लघु का प्रायश्चित्त आता है। ७८१. तिण्हाऽऽरेण समाणं, होइ पकप्पम्मि तरुणधम्मो उ।
पंचण्ह दसाकप्पे, जस्स व जो जत्तिओ कालो। व्रतपर्याय की अपेक्षा से तीन वर्ष से पूर्व मुनि निशीथाध्ययन के लिए तरुणधर्मा होता है। पांच वर्ष से दशाश्रुतस्कंध, कल्प और व्यवहार के लिए वह तरुणधर्मा होता है। जिस सूत्र का जितना कालमान है, उससे पूर्व वह उन आगमों के लिए तरुणधर्मा होता है। ७८२. पुरिसम्मि दुब्विणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे।
न वि दिज्जइ आभरणं, पलियत्तियकन्न-हत्थस्स। जो दुर्विनीत पुरुष है उसके लिए विनयविधान कर्मों के विनयन का उपाय किंचित् भी प्रतिपादित नहीं करना चाहिए। क्योंकि कटे हुए कान और हाथ वाले व्यक्ति को कोई आभरण नहीं दिया जाता। ७८३. मद्दवकरणं नाणं, तेणेव उ जे मदं समुवहति।
ऊणगभायणसरिसा, अगदो वि विसायते तेसिं॥ मार्दव अर्थात् मान का निग्रह करने वाला होता है ज्ञानश्रुतज्ञान। जो ज्ञान से दुर्विदग्ध हैं वे ज्ञान का अहंकार वहन करते हैं। जो अपूर्ण भरे घट के सदृश होते हैं, उनके लिए विषापहारी औषध भी विषरूप में परिणत हो जाती है। ७८४. सोउं अणभिगताणं, कहेइ अमुगं कहिज्जई इत्थं।
एस उ पइण्णपण्णो, पइण्णविज्जो उ सव्वं पि॥ अर्थमंडली में रहस्यमय अर्थ को सुनकर, उसे अपरिणत मुनियों को बताता है कि अमुक कल्पनीय रूप में कहा गया है। वह बताने वाला मुनि प्रकीर्णप्रज्ञ अर्थात् रहस्यों को जानने वाला अथवा प्रकीर्णप्रश्न कहलाता है। प्रकीर्णविद्य मुनि अपरिणत मुनि को छेदसूत्र के उत्सर्ग-अपवाद सहित सब कुछ बता देता है। ७८५. अप्पच्चओ अकित्ती, जिणाण ओहाव मइलणा चेव।
दुल्लहबोहीअत्तं, पावंति पइण्णवागरणा।।
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