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________________ पीठिका अपरिणत मुनियों को रहस्य के प्रति अविश्वास होता है, वे तीर्थंकरों की अकीर्ति करते हैं। वे उत्प्रवजन कर देते हैं। उनके ज्ञान आदि की मलिनता होती है। उनके लिए बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। वे होते हैं-प्रकीर्णव्याकरण | ७८६. सुत्त ऽत्थ-तदुभयाइं, जो घेत्तुं निण्हवे तमायरियं । लहुया गुरुया अत्थे गेरुयनायं अबोही ब॥ जो मुनि किसी आचार्य के पास सूत्र, अर्थ और तदुभय को ग्रहण कर आचार्य के नाम का निह्ववन करता है, अपलाप करता है तो उसे प्रायश्चित प्राप्त होता है सूत्राचार्य के निवन पर चतुर्लघुक, अर्थदायक का निह्नवन करने पर चतुर्गुरुक, उभयाचार्य का अपलाप करने पर तदुभय प्रायश्चित्त आता है। यहां गेरुक-परिव्राजक का दृष्टांत है। गुरु का निह्ववन करने वाले को परलोक में बोधि प्राप्त नहीं होती। ७८७. उवयम विन्नाणे, न कहेयव्वं सूर्य व अत्थो वा । न मणी सयसाहस्सो, आविज्झइ कोत्थु भासस्स ॥॥ जो मति - विज्ञान का उपहनन करता है, उसे श्रुत और अर्थ का ज्ञान नहीं कहना चाहिए। शतसहस्र मूल्य वाला कौस्तुभमणि भास पक्षी के गले में नहीं बांधा जाता। ७८८. अव्वत्ते अ अपत्ते, लहुगा लहुगा य होंति अप्पत्ते । लहुगा य दव्यतिंतिणि, रसतिंतिणि होंति चतुगुरुगा ॥ अव्यक्त और अपात्र को सूत्रार्थ देने पर चतुर्लघुक का तथा अप्राप्स अर्थात् आद्यदृष्टभाव को सूत्रार्थ देने पर भी चतुर्लघुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। द्रव्य तिन्तिणिक को देने पर भी चतुर्लघुक तथा रस तिन्तिणिक अर्थात् आहार तिन्तिणिक को देने पर चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। ७८९ अंत बहिं च गुरुगा, आवरिय गिलाण बाल बिअपयं आयरियपारिभासिस्स होति चउरो अणुग्धाया । अन्तर बहिर् संयोजना में चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है। आचार्य, ग्लान और बालकों के लिए संयोजना करना अपवादपद है। जो मुनि आचार्य का परिभाषी होता है उसे चार अनुद्धात का प्रायश्चित्त आता है। ७९० तम्हा न कहेयव्वं, आयरिएणं तु पवयणरहस्सं । खेत्तं कालं पुरिसं, नाऊण पगासए गुज्झं ॥ इसलिए आचार्य को प्रवचनरहस्य जिस किसी को नहीं कहने चाहिए। उनको क्षेत्र, काल और पुरुष को भलीभांति जानकर गुह्य का प्रकाशन करना चाहिए। ७९१. चउभंगो अणुण्णाए, अणणुन्नाए अ पढमतो सुद्धो । सेसाणं मासलहू, अविणयमाई भवे दोसा ॥ १. दृष्टांत के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. ३९ । Jain Education International ८५ अनुज्ञात और अननुज्ञात के आधार पर चतुभंगी होती है। उसमें प्रथम भंग शुद्ध है। शेष भंगों में मासलघु का प्रायश्चित्त तथा अविनय आदि दोष होते हैं। वह चतुभंगी इस प्रकार है १. अनुज्ञात अनुज्ञात को वाचना देता है। २. अनुज्ञात अननुज्ञात को वाचना देता है। ३. अननुज्ञात अनुज्ञात को वाचना देता है। १. अननुज्ञात अननुज्ञात को वाचना देता है। ७९२ परिणाम अपरिणामे, अइपरिणाम पडिसेह चरिमदुए। अंबाईदिट्ठतो, कहणा य इमेहिं ठाणेहिं ॥ परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक तीन प्रकार के शिष्य होते हैं। चरमद्विक अर्थात् अपरिणामक और अतिपरिणामक का प्रतिषेध करना चाहिए। इनको छेदसूत्र नहीं देना चाहिए। इन तीनों की परीक्षा के लिए आम्र आदि (वृक्ष, बीज) का दृष्टांत है। उनका अभिप्राय ग्रहण करने के पश्चात् आचार्य इन स्थानों प्रकारों से उनको उत्तर देना चाहिए। ७९.३. जो दव्यखेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणकरवायें। तं तह सहहमाणं जाणसु परिणामयं सां ॥ ७९४. जो दव्व खेत्तकय-काल- भावओ जं जहा जिणक्खायं । तं तह असदहंतं, जाण अपरिणामयं अपरिणामयं साहुं ॥ जो मुनि द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत को जिनेश्वरदेव ने जैसे कहा है, उस पर वैसी श्रद्धा रखता है उसे परिणामक जानना चाहिए। जो उन पर वैसी श्रद्धा नहीं रखता वह अपरिणामक होता है। 9 ७९५. जो दव्यखेत्तकय-काल- भावओ जं जहिं जया काले। - For Private & Personal Use Only , तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणाम बियाणाहि ॥ जो वस्तु द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत कालकृत और भावकृत है, उसको जहां और जिस काल में ग्राह्यरूप में कथित है, उसे आपवादिक ग्रहण में जिसकी लेश्या हो, आपवादिक सूत्र में जिसकी मति प्रबल हो, उस मुनि को अतिपरिणामक जानना चाहिए। ७९६. परिणम जहत्थेणं मई उ परिणामगस्स कज्जेस । बिइए न उ परिणमई, अहिगं मइ परिणमे तइओ ॥ परिणामक वह होता है जिसकी मति कार्य में यथार्थरूप से परिणत होती है। अपरिणामक की मति वैसे परिणत नहीं होती अतिपरिणामक की मति अधिक परिणत होती है। ७९७, दोस वि परिणमद मई, उस्सन्गऽववायओ उ पढमस्स बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए य तइयस्स ॥ २. मतिः स्वाभाविकी, विज्ञानं च गुरूपदेशजम् । www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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