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=बृहत्कल्पभाष्यम्
__ परिणामक की मति उत्सर्ग और अपवाद-दोनों में परिणत होती है। दूसरे की अर्थात् अपरिणामक की मति केवल उत्सर्ग में ही परिणत होती है और तीसरे की अर्थात् अतिपरिणामक की मति अपवाद में ही परिणत होती है। ७९८. चेयणमचेयण भाविय, केहह छिन्ने अ कित्तिया वा वि।
लद्धा पुणो व वोच्छं, वीमंसत्थं व वुत्तो सि॥
आचार्य ने तीनों प्रकार के शिष्यों की परीक्षा करने के निमित्त कहा-'आर्यो ! हमें आम्र चाहिए।' (गाथा ७९२ में उक्त दृष्टांत) यह सुनकर परिणामक शिष्य कहता है-भंते! आम्र चेतन या अचेतन ? भावित (लवणादि से) या अभावित? कितने प्रमाण वाले अर्थात् बड़े या छोटे? छिन्न (टुकड़े किए) या अछिन्न? कितनी संख्या में? कौन से आम्र लाऊं? तब आचार्य कहते हैं-वत्स! वे प्राप्त हो गए हैं। भविष्य में जब आवश्यकता होगी तो तुमको कहूंगा। अथवा वत्स! मैंने तो आम्र लाने की बात विमर्श करने के लिए, तुम्हारी परीक्षा करने के लिए, कही थी। ७९९. किं ते पित्तपलावो, मा बीयं एरिसाइं जंपाहि।
मा णं परो वि सोच्छिहि, कहं पि नेच्छामो एयस्स॥ अपरिणामक शिष्य कहता है-ओ आचार्य! क्या आपके पित्त का प्रकोप हो गया है कि आप आम्र लाने की बात कह रहे हैं? दूसरी बार ऐसा कभी मत कहना। आपके ये वचन दूसरे भी सुनेंगे। हम भी आपके ऐसे सावध वचन सुनना नहीं चाहते। ८००. कालो सिं अइवत्तइ, अम्ह वि इच्छा न भाणिउंतरिमो।
किं एच्चिरस्स वुत्तं, अन्नाणि वि किं व आणेमि।। अतिपरिणामक शिष्य कहता है-क्षमाश्रमण! यदि आम्र की आवश्यकता है तो अभी ले आता हूं। आम्र का यह काल बीत रहा है। हमारी भी आम्र के प्रति इच्छा है, परंतु हम उसको व्यक्त नहीं कर सकते। आपने इतने दिनों बाद क्यों । कहा? क्या मैं अन्य फल भी आपके लिए ले आऊं? ८०१. नाभिप्पायं गिण्हसि, असमत्ते चेव भाससी वयणे।
सुत्तंबिल-लोणकए, भिन्ने अहवा वि दोच्चंगे। यह सुनकर आचार्य अपरिणामक शिष्य और अतिपरिणामक शिष्य को यह कहे-तुमने मेरे अभिप्राय को नहीं
जाना। मेरे वचन को पूरा सुने बिना तुम ऐसा वचन कह रहे हो। मैं कह रहा था कि शुक्लाम्ल लवण से भावित, छिन्नभिन्न किए हुए तथा 'दोच्चंग-भोजन का द्वितीय अंग अर्थात् शाकरूप में पकाए हुए आम्र लाने हैं। ८०२. निप्फाव-कोद्दवाईणि बेमि रुक्खाणि न हरिए रुक्खे।
अंबिल विद्धत्थाणि अ, भणामि न विरोहणसमत्थे। बीज आदि के विषय में भी आचार्य कहे-शिष्यो! निष्पाव, कोद्रव आदि जो रूक्ष हों-सूख गए हों, उनके विषय में कहा था। न कि हरित वृक्षों के लिए। जो बीज अम्लभावित हैं, विध्वस्तयोनिक हैं, उनके विषय में कहा था। जो उगने में समर्थ हों उन बीजों के विषय में नहीं। ८०३. निदा-विगहापरिवज्जिएण, गुत्तिदिएण पंजलिणा।
भत्ती बहुमाणेण य, उवउत्तेणं सुणेयव्वं ॥ ८०४. अभिकखंतेण सुभासियाई वयणाई अत्थमहराई।
विम्हियमुहेण हरिसागएण हरिसं जणतेण॥ सुनने की कलानिद्रा और विकथा का परिवर्जन कर , गुप्लेन्द्रिय होकर, हाथ जोड़कर, भक्ति और बहुमानपूर्वक, उपयुक्त अर्थात तल्लीन होकर सुनना चाहिए।
सुभाषित वचन, जो अर्थमधुर हों उनकी अभिकांक्षा करता हुआ मुनि विस्मितमुख से हर्षागत होकर, गुरु में भी हर्षातिरेक पैदा करता हुआ, उनकी वाणी सुने। ८०५. आधारिय सुत्तत्थो, सविसेसो दिज्जए परिणयस्स।
सुपरिच्छित्ता य सुनिश्छियस्स इच्छागए पच्छा। कल्प और व्यवहार का सूत्रार्थ सापवादरूप में गुरु के मुख से जो गृहीत है वह सारा परिणामक शिष्य को दे। पहले उसकी अच्छे प्रकार से परीक्षा करे तथा वह यदि सूत्रार्थ लेने में सुनिश्चयवाला हो तो उसे सूत्रार्थ की वाचना दे। जब अपरिणामक और अतिपरिणामक की क्रमशः केवल उत्सर्ग और केवल अपवादरूप इच्छा निवर्तित हो जाती है, तब उनको भी छेदसूत्र दिया जा सकता है।
पीठिका समाप्त
१. दोच्चंग-सामयिकी संज्ञा, ओदनादिमूलांगापेक्षया भोजनस्य द्वितीयांगानि-रान्द्रशाकरूपाणि। (वृ. पृ. २५२)
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