________________
पहला उद्देशक
= १२७
देवों और मनुष्यों के निश्रा में आए हुए देव, मनुष्य भी उनके सामायिक, देशविरति सामायिक तथा सर्वविरति सामायिक। पास ही खड़े रहते हैं।
मनुष्य इन चार प्रकार की सामायिकों में से किसी एक ११८८.एक्केक्कीए दिसाए, तिगं तिगं होइ सन्निविटुं तु।। सामायिक को ग्रहण करता है। तिर्यंच तीन (सम्यक्त्व, श्रुत,
आइ-चरिमे विमिस्सा, थी-पुरिसा सेस पत्तेयं॥ देशविरति) अथवा दो (सम्यक्त्व तथा श्रुत) सामायिक ग्रहण एक एक दिशा में एक-एक त्रिक बैठा हुआ अथवा खड़ा करता है। यदि मनुष्य और तिर्यंच में कोई सामायिक ग्रहण हुआ रहता है। जैसे-दक्षिण-पूर्व दिशा में श्रमण, वैमानिक करने में समर्थ न हो तो नियमतः देवों में किसी न किसी को देवांगनाएं तथा श्रमणियां-यह त्रिक, उत्तर-दक्षिण दिशा में सम्यक्त्व की प्रतिपत्ति होती है। भवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क की देवांगनाएं यह त्रिक, ११९३.तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं। उत्तर-पश्चिम दिशा में भवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क
सव्वेसिं सन्नीणं, जोयणनीहारिणा भगवं॥ देव-यह त्रिक, उत्तर-पूर्व दिशा में वैमानिक देव, मनुष्य और भगवान् धर्मदेशना से पूर्व तीर्थ को नमस्कार करते हैं स्त्रियां-यह त्रिक। प्रथम और अंतिम त्रिक में विमिश्र अर्थात् और तदनन्तर साधारण अर्थात् स्व-स्वभाषा में परिणमनस्त्री-पुरुष दोनों, शेष दो त्रिकों में एक में पुरुष और एक में समर्थ तथा योजनव्यापी शब्दों से धर्मदेशना देते हैं। भगवान् स्त्रियां।
की दिव्यशब्दध्वनि से सभी संज्ञी जीवों की जिज्ञासाएं शांत ११८९.इंतं महिड्डियं पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता। हो जाती हैं।
न वि जंतणा न विकहा, न परोप्परमच्छरो न भयं॥ ११९४.तप्पुब्विया अरहया, पूइयपूया य विणयमूलं च। यदि समवसरण में पहले अल्पऋद्धिवाले देव आकर
कयकिच्चो वि जह कह, कहेइ नमए तहा तित्थं॥ स्थित हो गए हों वे पश्चात् आने वाले महर्द्धिक देवों को शिष्य पूछता है-भगवान् तीर्थ को प्रणाम क्यों करते हैं? प्रणाम करते हैं। यदि महर्द्धिक देव पहले आकर समवसरण आचार्य कहते हैं-तीर्थ का अर्थ है श्रुतज्ञान। इससे ही में स्थित हो तो आने वाले अल्पऋद्धि वाले देव उनको अर्हता-तीर्थकरता प्राप्त होती है। पूजितपूजा अर्थात् भगवान् नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं। ऐसे तीर्थ की पूजा करते हैं तो लोग भी उसकी पूजा करने लग आने-जाने वालों के तत्रस्थित देवों की ओर से कोई यंत्रणा जाते हैं। भगवान् ने विनयमूल धर्म का प्रतिपादन किया, नहीं होती, न विकथा का प्रसंग आता है, न परस्पर इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम तीर्थ के प्रति विनय प्रदर्शित किया। मत्सरभाव पैदा होता है और न भय-संत्रास का अनुभव प्रश्न है-भगवान् कृतकृत्य हो चुके थे, फिर धर्मकथा करना, होता है।
तीर्थ को प्रणाम करना-यह क्यों? ११९०.बिइयम्मि होति तिरिया, तइए पागारमंतरे जाणा। (भगवान् को तीर्थंकरनामगोत्र कर्म का अवश्य वेदन
पागारजढे तिरिया, वि होंति पत्तेय मिस्सा वा॥ करना था, भोगना था, इसलिए धर्मदेशना देना ही एकमात्र समवसरण के दूसरे प्राकार में तिर्यंच होते है और तीसरे उपाय था। आवश्यक नियुक्ति (गाथा १८३) में कहा है-'तं च प्रकार में यान-वाहन। प्राकार के बाहर तिर्यंच, मनुष्य, देव- कहं वेइज्जइ? अगिलाए धम्मदेसणाईहिं'। ये सारे अकेले अथवा मिश्ररूप में होते हैं।
११९५.जत्थ अपुव्वोसरणं, न दिट्ठपुव्वं व जेण समणेणं। ११९.१.सव्वं व देसविरई, सम्म घेच्छइ व होइ कहणा उ। बारसहिं जोयणेहिं, सो एइ अणागमे लहुगा॥
इहरा अमूढलक्खो , न कहेइ भविस्सइ न तं च॥ जिस क्षेत्र में अपूर्व-पहली बार समवसरण होता है और उस समवसरण में कोई सर्वविरति अथवा देशविरति जिस श्रमण ने पहले कभी नहीं देखा है और वह बारह योजन अथवा सम्यक्त्व ग्रहण करेगा, इस दृष्टि से भगवान् दूर पर स्थित है तो भी वह समवसरण देखने के लिए आ धर्मदशना देते हैं। अन्यथा वे धर्मदेशना नहीं देते। वे सकता है। यदि वह नहीं आता है तो उसे चतुर्लघु का अमूढलक्ष्य वाले होते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि भगवान् प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। की धर्मदेशना में कोई प्राणी किसी न किसी सामायिक को ११९६.सव्वसुरा जइ रूवं, अंगुट्ठपमाणयं विउविज्जा। ग्रहण न करे।
जिणपायंगुटुं पइ, न सोहए तं जहिंगालो। ११९२.मणुए चउमन्नयरं, तिरिए तिन्नि व दुवे व पडिवज्जे। यदि सभी देवता मिलकर (सारतम पुद्गलों से) अंगुष्ठ
जइ नत्थि नियमसो च्चिय, सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती॥ प्रमाण रूप की विकुर्वणा करते हैं, फिर भी वह रूप तीर्थंकर सामायिक के चार प्रकार हैं-सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत के पादांगुष्ठ जितना भी शोभित नहीं हो सकता, जैसे अंगार।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org