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=बृहत्कल्पभाष्यम्
११९७. गणहर आहार अणुत्तरा य जाव वण-चक्कि-वासु-बला।
मंडलिया जा हीणा, छट्ठाणगया भवे सेसा॥ तीर्थंकर की रूपसंपदा की तुलना में गणधर रूपसंपदा अनंतगुणहीन, इससे आहारक शरीर अनंतगुणहीन, इससे अनुत्तरोपपातिक देवों का शरीर अनन्तगुणहीन, इससे भी अनंतगुणहीन उपरितन-उपरितन ग्रैवेयकदेवों का शरीर, इसी प्रकार वैमानिक देवों के एक-एक से नीचे के देव शरीर यावत् सौधर्मकल्प तक अनन्तगुणहीन होते हैं। इनसे भवनपतिज्योतिष्क-वनचर-चक्रवर्ती वासुदेव-बलदेव मांडलिक राजा रूप से यथाक्रम अनंतगुणहीन होते हैं। शेष राजा और जनपद के लोग परस्पर षट्स्थानपतित होते हैं। (वे षट्स्थान ये हैं- (१) अनन्तभागहीन (२) असंख्येयभागहीन (३) संख्येयभागहीन (४) संख्येयगुणहीन (५) असंख्येयगुणहीन ६. (अनन्तगुणहीन।) ११९८.संघयण-रूव-संठाण-वन्न-गइ-सत्त-सार-ऊसासा।
एमादऽणुत्तराई, हवंति नामोदया तस्स।। भगवान् का संहनन, रूप, संस्थान, वर्ण, गति, सत्त्वधैर्य, सार, उच्छ्रास-निःश्वास आदि नाम कर्म के उदय से अनुत्तर होते हैं। ११९९.पयडीणं अन्नासऽवि, पसत्थ उदया अणुत्तरा होति।
खयउवसमे वि य तहा, खयम्मि अविगप्पमाहंसु॥ नाम कर्म की प्रकृतियों के अतिरिक्त गोत्र आदि कर्मप्रकृतियों का उदय भी प्रशस्त और अनुत्तर होता है। भगवान् के कर्मों का क्षयोपशम भी अनुत्तर होता है। क्षय अविकल्पनीय-विकल्पातीत होता है। १२००.अस्सायमाइयाओ, जा वि य असुहा हवंति पगडीओ।
निंबरसलवु व्व पए, न होति ता असुया तस्स॥ असातावेदनीय आदि कर्मप्रकृतियां जो अशुभ होती हैं, वे भी भगवान के लिए दूध में निम्बरस के लव की भांति असुखकर या अशुभकर नहीं होती। १२०१.धम्मोदएण रूवं, करेंति रूवस्सिणो वि जइ धम्म।
गज्झवओ य सुरूवो, पसंसिमो रूवमेवं तु॥ धर्म के उदय से अर्थात् प्रशस्त और शुभ प्रकृति के उदय से रूप की प्राप्ति होती है। रूपवान् व्यक्ति भी यदि धर्म करते हैं तो शेष सामान्य व्यक्ति भी धर्म के प्रति तत्पर होते हैं।
सुरूप व्यक्ति आदेयवाक्य होता है। इसलिए हम भगवान के रूप की प्रशंसा करते हैं। १२०२.कालेण असंखेण वि, संखाईयाणं संसईणं तु।
मा संसयवोच्छित्ती, न होज्ज कमवागरणदोसा।। प्रश्न होता है कि समवसरण में उपस्थित सभी प्राणियों के संशयों का व्यवच्छेद भगवान एक साथ कैसे कर देते हैं ? यदि प्रत्येक के संशय का व्यवच्छेद क्रमपूर्वक किया जाता है तो उसमें क्या दोष है? उत्तर में कहा गया असंख्येय काल में भी संख्यातीत संशयी व्यक्तियों के संशयों की व्यवच्छित्ति क्रमपरिपाटी से नहीं हो सकती। भगवान् जानते थे कि यह क्रमपूर्वकव्याकरण का दोष है। यह दोष न आए, इसलिए उन्होंने युगपद् व्याकरण किया। १२०३.सव्वत्थ अविसमत्तं, रिद्धिविसेसो अकालहरणंच।
सव्वन्नुपच्चओ वि य, अचिंतगुणभूइओ जगवं॥ युगपद् व्याकरण के ये गुण हैं१. सब जीवों के प्रति अविषमता का पालन। २. ऋद्धिविशेष का द्योतन। ३. अकालहरण।' ४. सर्वज्ञत्व का प्रत्यय।
५. अचिन्त्य गुणसंपदा का द्योतन। १२०४.वासोदगस्स व जहा, वन्नादी होति भायणविसेसा।
सव्वेसि पि सभासं, जिणभासा परिणमे एवं॥ वर्षा के पानी से अथवा ऐसे ही किसी एकरूप पानी से भूमी आदि के आधार-विशेष से वर्ण आदि (वर्ण, गंध, रूप, स्पर्श) विचित्र प्रकार के होते हैं। वैसे ही जिनेश्वरदेव की भाषा श्रोताओं की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। १२०५.साहारणा-ऽसवत्ते, तओवओगो उ गाहगगिराए।
न य निविज्जइ सोया, किढिवाणियदासिआहरणा॥ भगवान की वाणी साधारण होती है। वह असपत्न अर्थात् अनन्यसदृशी होती है। श्रोता उसी में एकाग्र हो जाता है। वह ग्राहिका अर्थात् अर्थपरिच्छेदकारी होती है। उसको सुनते-सुनते श्रोता नहीं ऊबता। यहां वणिक् की बूढ़ी दासी का उदाहरण है। १२०६. सव्वाउअंपि सोया, झविज्ज जइ हु सययं जिणो कहए।
सी-उण्ह-खु-प्पिवासा-परिस्सम-भए अविगणितो॥
१. क्रमपूर्वक संशय की व्यवच्छित्ति की प्रवृत्ति में किसी संशयी व्यक्ति
का संशयव्यवच्छित्ति से पूर्व ही मृत्यु उसका हरण कर लेती है। अतः
युगपनिर्वचन में अकालहरण होता है। २. साधारण के तीन अर्थ हैं-(१) समस्त संज्ञी प्राणियों की भाषाओं
में परिणत होने वाली (२) जैसे दूध में शक्कर आदि मधुर द्रव्य
मिलाने पर वह दूध सुस्वादु हो जाता है, वैसे ही वह वाणी सुस्वादु होती है (३) वह वाणी प्राणियों को आधार देकर परित्राण करने
वाली होती है। ३. उदाहरण के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५२।
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