________________
पहला उद्देशक
यदि भगवान् सतत धर्मदेशना करते रहें तो श्रोता शीत- जाने पर तथा बलवान् व्यक्तियों द्वारा निष्तष किए जाने पर उष्ण, भूख, प्यास, परिश्रम और भय-इन सबको न गिनता देवमाल्य अर्थात् बलि निष्पन्न की जाती है। हुआ, धर्मदेशना सुनते-सुनते अपना आयुष्य भी पूरा कर १२१२.भाइयपुणाणियाणं, अखंड-ऽफुडियाण फलगसरियाणं। देता है।
कीरइ बली सुरा वि य, तत्थेव छुहति गंधाई। १२०७.वित्ती उ सुवन्नस्सा, बारस अद्धं च सयसहस्साइं। वे कलमी तन्दुल भाजित अर्थात धनवानों के घर में बीनने
तावइयं चिय कोडी, पीईदाणं तु चक्कीणं॥ के लिए दिए जाते हैं। जब यह बीनना संपन्न हो जाता है तब जो व्यक्ति भगवान् के विहरणक्षेत्र संबंधी तथा अन्यान्य उन्हें ले आते हैं। अखंड और अस्फुटित (पूरे तथा लकीर प्रवृत्तियों के विषय में प्रतिदिन के समाचार चक्रवर्ती को रहित) उस शालि को फलक से साफ कर बलि निष्पन्न की निवेदित करता है तो उसको चक्रवर्ती वार्षिक वृत्ति के रूप में जाती है। देवता उसी में गंध आदि का प्रक्षेप करते हैं। साढ़े बारह लाख स्वर्ण (स्वर्णमुद्रा) का दान देता है। यह (उस देवमाल्य के आनयन की विधि यह है-राजा आदि वृत्तिदान कहलाता है।
देवताओं से परिवृत होकर, दिग्मंडल को गुंजित करने वाले ___ जो व्यक्ति नगर में भगवान् के आगमन का समाचार पटह, तूर्य आदि वाद्यों के साथ पूर्वद्वार से समवसरण में चक्रवर्ती को निवेदित करता है, उसे साढ़े बारह कोटि स्वर्ण प्रविष्ट होते हैं। तब भगवान् धर्मदशना का उपसंहार कर देते हैं, यह प्रीतिदान कहलाता है।
देते हैं।) १२०८.एतं चेव पमाणं, नवरं रययं तु केसवा दिति। १२१३.बलिपविसणसमकालं, पुव्वद्दारेण ठाइ परिकहणा।
मंडलियाण सहस्सा, वित्ती पीई सयसहस्सा।। तिगुणं पुरओ पाडण, तस्सद्धं अवडियं देवा। वासुदेव इतने प्रमाण में ही रजत का दान देते हैं। जब पूर्वद्वार से बलि का प्रवेश होता है तब तत्काल मांडलिक राजा का वृत्तिदान साढ़े बारह हजार रजत का और भगवान् धर्मदेशना से उपरत हो जाते हैं। बलि को लेकर राजा प्रीतिदान साढ़े बारह लाख रजत प्रमाण वाला होता है। आदि भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा कर बलि को भगवान के १२०९.भत्ति-विभवाणुरूवं, अन्ने वि य दिति इन्भमाईया। चरणों के सामने गिरा देते हैं। उस बलि का आधा भाग, भूमी
सोऊण जिणागमणं, निउत्तमनिओइएसुं वा॥ पर गिरने से पूर्व ही देवता ग्रहण कर लेते हैं। नियुक्त अथवा अनियुक्त व्यक्तियों द्वारा भगवान् के १२१४.अद्धद्धं अहिवइणो, तदद्ध मो होइ पागयजणस्स। आगमन का संवाद सुनकर इभ्य' आदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सव्वामयप्पसमणी, कुप्पइ नऽन्नो य छम्मासे। भक्ति और वैभव के अनुरूप वृत्ति अथवा प्रीतिदान देते हैं। बलि का शेष बचे हुए आधे भाग में से आधा भाग बलि १२१०.देवाणुवित्ति भत्ती, पूया थिरकरण सत्तअणुकंपा। के स्वामी-राजा आदि को प्राप्त होता है। उससे आधा अर्थात्
साओदय दाणगुणा, पभावणा चेव तित्थस्स॥ चतुर्थ भाग प्राकृतजन अर्थात् इतर लोगों को प्राप्त होता है। (वृत्तिदान और प्रीतिदान का लाभ)
यह बलि समस्त रोगों का उपशमन करने वाली होती है तथा जब चक्रवर्ती आदि वृत्तिदान और प्रीतिदान देते हैं तब छह मास तक दूसरा कोई रोग उत्पन्न नहीं होता। (इस बलि माना जाता है कि उन्होंने देवताओं की अनुवृत्ति-अनुसरण का एक कण भी जिसके सिर पर प्रक्षिप्त कर दिया जाता है किया है। भगवान की भक्ति और पूजा होती है। नए तो वह उपरोक्त प्रभाव से लाभान्वित हो जाता है।) श्रद्धालुओं का स्थिरीकरण होता है। भगवान् के वृत्तान्त की १२१५.खेयविणोओ सीसगुणदीवणा पच्चओ उभयओ वि। जानकारी देने वालों पर अनुकंपा होती है। सातावेदनीय कर्म सीसा-ऽऽयरियकमो वि य, गणहरकहणे गुणा होति। का बंध होता है। तीर्थ की प्रभावना होती है। दान के ये (प्रथम प्रहर में भगवान् जब धर्मदेशना देकर उपरत होते गुण हैं।
हैं तब तीर्थ अर्थात् प्रथम गणधर अथवा अन्य गणधर द्वितीय १२११.राया व रायमच्चो, तस्सासइ पउर जणवओ वा वि। प्रहर में धर्मकथा करते हैं।)
दुब्बलिकडिय बलिछडिय तंदुलाणाढगं कलमा॥ शिष्य प्रश्न करता है-भगवान् ही धर्मकथा क्यों नहीं राजा अथवा मंत्री अथवा इनके अभाव में पौरजन अथवा करते? क्या गणधर के धर्मकथा करने में कोई गुण है? जनपद-ग्रामवासियों का समुदय मिलकर एक आढ़क (चार आचार्य कहते हैं-गुण हैं। भगवान् को खेदविनोद अर्थात् प्रस्थ-चार सेर) कलमी तन्दुल, दुर्बल व्यक्तियों द्वारा छांटे परिश्रम से विश्राम मिल जाता है। शिष्य के गुणों की दीपना १. इभमहतीति इभ्यः, यस्य सत्कसुवर्णादिद्रव्यपुञ्जनान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते सः। (वृ. पृ. ३७५)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org