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=बृहत्कल्पभाष्यम् होती है। भगवान् और शिष्य-दोनों के प्रति विश्वास होता यदि बारह वर्षों तक सूत्र का ग्रहण किया है तो है। (जैसे भगवान ने कहा, गणधर भी वैसा ही कहते हैं।) बारह वर्षों तक उसका अर्थ सुनो, ग्रहण करो। इस प्रकार शिष्य और आचार्य का क्रम भी प्रदर्शित होता है। गणधर के तुम अपने ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम के अनुसार धर्मकथा करने के ये गुण हैं।
विवक्षित अर्थ को जान पाओगे, अथवा पूरा नहीं भी जान १२१६.राओवणीय सीहासणोवविठ्ठो व पायवीढम्मि।। पाओगे।
जिट्ठो अन्नयरो वा, गणहारि कहेइ बीयाए॥ १२२१.सन्नाइसुत्त ससमय, परसमय उस्सग्गमेव अववाए। वह गणधर राजा द्वारा उपनीत सिंहासन पर अथवा
हीणा-ऽहिय-जिण-थेरे, अज्जा काले य वयणाई। भगवान् के पादपीठ पर बैठकर ज्येष्ठ गणधर अथवा अन्य जैनेन्द्र प्रवचन में सूत्र अनेक प्रकार के हैं.... कोई गणधारी दूसरे प्रहर में धर्मकथा करता है।
संज्ञासूत्र आदि, स्वसमयसूत्र, परसमयसूत्र, उत्सर्गसूत्र, १२१७.संखाईए वि भवे, साहइ जं वा परो उ पुच्छिज्जा। अपवादसूत्र, हीनाक्षरसूत्र, अधिकाक्षरसूत्र, जिनकल्पसूत्र,
न य णं अणाइसेसी, वियाणई एस छउमत्थो॥ स्थविरकल्पसूत्र, आर्यासूत्र, कालसूत्र, वचनसूत्र आदि। गणधर संख्यातीत भवों का कथन कर सकते हैं। अथवा १२२२.जे सुत्तगुणा खलु लक्खणम्मि कहिया उ सुत्तमाईया। दूसरा व्यक्ति जो कोई प्रश्न करता है, उसका वे समाधान
अत्थग्गहणमराला, तेहिं, चिय पन्नविज्जंति॥ करते हैं। अनतिशायी ज्ञानी उस गणधर को 'यह छद्मस्थ सूत्र के जो गुण पीठिका के लक्षणद्वार (गाथा २८२) में हे'-ऐसा नहीं जानता। (किन्तु निःशेष प्रश्नों का उत्तर देने में कहे गए हैं अथवा (गाथा ३१०) 'सुत्तमाईय' से प्रतिपादित समर्थ जानकर उसे सर्वज्ञ की प्रतीति होती है।)
हैं, उन्हीं हेतुओं से अर्थग्रहण में मराल की भांति शिष्य १२१८.तित्थयरस्स समीवे, वक्वो तत्थ एवमाईहिं। प्रज्ञापित किए जाते हैं।
सुत्तग्गहणं ताहे, करेइ सो बारस समाओ॥ १२२३.जइ वि पगासोऽहिगओ, देसीभासाजुओ तहा वि खलु। इस प्रकार तीर्थंकर के समीप अध्ययन में अनेक उंदुय सिया य वीसुं, एरगमाई य पच्चक्खं॥ व्याक्षेप आते हैं। तब शिष्य आचार्य को कहता है-भंते! मैं (शिष्य ने पूछा-जब सूत्र और अर्थ जान लिया गया है, यहीं सूत्र पढेगा, यह कहकर वह बारह वर्षों तक सूत्र-ग्रहण फिर देशाटन से क्या प्रयोजन?) आचार्य कहते हैं-बारह वर्षों करता है।
तक सूत्र ग्रहण किया और बारह वर्षों तक सूत्र का प्रकाश १२१९.सुत्तम्मि य गहियम्मी, दिद्रुतो गोण-सालिकरणेणं। अर्थात् अर्थ भी ग्रहण कर लिया। फिर भी उस शिष्य को
उवभोगफला साली, सुत्तं पुण अत्थकरणफलं॥ देशी भाषाओं से युक्त करना चाहिए। जैसे उंदुक का अर्थ सूत्र-ग्रहण के पश्चात् उसका अर्थ अवश्य जान लेना। है-स्थान। सिया-स्यात् के तीन अर्थ हैं-है, आशंका तथा चाहिए। क्योंकि सूत्र अर्थकरणफल अर्थात् सूत्रार्थ के आचरण भजना-विकल्प। वीसु का अर्थ है-पृथग। एरक का अर्थ फल वाला होता है। यहां बैल' और शालिके दृष्टांत हैं। है-गुन्द्रा, भद्रमुस्तक (नागर मोथा)--ये सारे देशीशब्द हैं शालि की उत्पत्ति का फल है-शालि का उपभोग।
इसी प्रकार पयः पिच्च, नीर आदि शब्द हैं। जो देशदर्शन के १२२०.जइ बारस वासाइं, सुत्तं गहियं सुणाहि से अहुणा। लिए जाता है उसको ये तथा ऐसे ही अन्य शब्द प्रत्यक्षतः
बारस चेव समाओ, अत्थं तो नाहिसि न वा णं॥ प्राप्त होते हैं। १-२. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५३-५४।
८. जिनकल्पिक-तेगिच्छं नाभिनंदिज्जा..। (उत्त. अ. २ गा. ३३) ३. विभिन्न सूत्र
९. स्थविरकल्पिक-भिक्खू अ इच्छिज्जा अन्नयरि तेगिंच्छि १.संज्ञा सूत्र-जे छेए से सागारियंन सेवे। (आचा. श्रु.१ अ.५ उ.१)
आउंटित्तए। २. स्वसमयसूत्र-करेमि भंते! सामाइयं। (सामायिकाध्ययन)
१०. दोनों का सामान्य-संसट्ठकप्पे ण चरिज्ज भिक्खू। ३. परसमयसूत्र-पंचखंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोविणो।
(दश. चू.२ गा. ६) (सू. कृ. श्रु.१ अ.१ उ.१) ११. आर्यासूत्र-कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए। ४. उत्सर्गसूत्र-अभिक्खणं निविगइं गया य। (दश. चू. २ गा. ७)
(उ.१ सूत्र १६) ५. अपवादसूत्र-तिण्हमन्नयरागस्स निसिज्जा.....।
१२. कालविषयक-नय लभेज्जा निउणं सहायं,.....। (दश. अ. ६ गा. ५९)
(दश. चू. २ गा. १०) ६. हीणाक्खरं-अक्षरो से हीन।
१३. वचनसंबंधि-.......एगवयणं वएज्जा, दुवयणं वयमाणे आदि। ७. अहियाक्खरं-अधिक अक्षरों से युक्त।
आदि शब्द से भयसूत्र आदि।
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