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पहला उद्देशक १२२४. जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पच्चक्खओ न उवलदो। १२३१.पियधम्मऽवज्जभीरू, साहम्मियवच्छलो असढभावो।
जच्चंधस्स व चंदो, फुडो वि संतो तहा स खलु। संविग्गावेइ परं, परदेसपवेसणे साह॥ जिस शिष्य ने सूत्रों के प्रकाश अर्थात् अर्थ का अनेक विविध देशों की भाषा में कुशल मुनि विविध देशों की बार अभ्यास कर लिया है, किन्तु प्रत्यक्षतः उन अर्थों को भाषा में निबद्ध सूत्रों के उच्चारण और अर्थ करने में कुशल उपलब्ध नहीं हुआ, सुना नहीं है, उसके लिए प्रत्यक्ष दर्शन होता है, इसलिए देशदर्शन के लिए जाना चाहिए। के बिना उन शब्दों का अर्थ परिस्फुट नहीं होता। जैसे वह मुनि अभाषक अर्थात् अव्यक्त भाषा वाले व्यक्तियों को जात्यन्धव्यक्ति चन्द्रमा को भी अस्पष्ट ही मानता है। भी धर्म देशना देता है और उनको प्रव्रजित करता है। सभी १२२५.आयरियत्तअभविए, भयणा भविओ परीइ नियमेणं। शिष्य उसके प्रति प्रीतिभाव रखते हैं। वे यह मानते हैं कि ____ अप्पतइओ जहन्ने, उभयं किं चाऽऽरियं खेत्तं॥ यह स्वाभाविक है, हमारी अपनी भाषा में बोलता है।
जो शिष्य आचार्यपद के लिए अभव्य-अयोग्य होता है, वह प्रियधर्मा, पापभीरू साधर्मिकवत्सल, अशठभावउसके लिए देशदर्शन के लिए जाना अनिवार्य नहीं है, मायारहित-ऐसा साधु परदेश में प्रवेश करने पर संयमयोगों वैकल्पिक है। किन्तु जो शिष्य आचार्यपद के लिए योग्य में शिथिल मुनियों में भी संविग्नता पैदा कर उनको होता है, वह नियमतः देशदर्शन के लिए जाता है।
संयमयोगों में स्थिर कर देता है। १२२६.दसणसोही थिरकरण देस अइसेस जणवयपरिच्छा। १२३२.सुत्त-ऽत्थथिरीकरणं, अइसेसाणं च होइ उवलद्धी।
काउ सुयं दायव्वं, अविणीयाणं विवेगो य॥ आयरियदंसणेणं, तम्हा सेविज्ज आयरिए। देशदर्शन के ये गुण हैं-दर्शनशोधि, स्थिरीकरण, देश, १२३३.उभए वि संकियाई, पुब्विं जाइं सि पुच्छमाणस्स। अतिशेष, जनपदपरीक्षा-यह सब संपन्न कर विनीत को श्रुत होइ जओ सुत्तत्थे, बहुस्सुए सेवमाणस्स। देना चाहिए। और अविनीत को विवेक।
आचार्यों के दर्शन से उनकी सेवा करने से सूत्र और अर्थ (यह द्वार गाथा है। इसका विस्तार आगे।)
का स्थिरीकरण होता है, अतिशेष-विशिष्ट अर्थ की १२२७.जम्मण-निक्खमणेसु य तित्थयराणं महाणुभावाणं। उपलब्धि होती है। इसलिए आचार्य की पर्युपासना करनी
इत्थ किर जिणवराणं, आगाढं दंसणं होइ॥ चाहिए। महानुभाव तीर्थंकरों की जन्मभूमी (अयोध्या आदि), दोनों-सूत्र और अर्थ विषयक जो उसके शंकाएं पूर्व में हुई निष्क्रमणभूमी (उज्जयन्त आदि), ज्ञानोत्पत्ति (पुरिमताल थीं, आचार्य से पूछ कर वह निःशंक हो जाता है। बहुश्रुत की आदि), निर्वाणभूमी (सम्मेदशिखर, चंपा आदि)-इन क्षेत्रों में सेवा करने से, सूत्र और अर्थ विषयक उसका अभ्यास विहरण करने से, जिनवर संबंधी बातें ज्ञात करने पर, वह परिपुष्ट हो जाता है। मुनि निःशंक हो जाता है। उसका दर्शन-सम्यक्त्व आगाढ़ १२३४.भवियाइरिओ देसाण दंसणं कुणइ एस इय सोउ। अर्थात् अत्यंत विशुद्ध हो जाता है।
अन्ने वि उज्जमते, विणिक्खमंते य से पासे। १२२८.संवेगं संविग्गाण जणयए सुविहिओ सुविहियाणं। भव्य आचार्य-आचार्य योग्य शिष्य यदि देशदर्शन के
आउत्तो जुत्ताणं, विसुद्धलेसो सुलेस्साणं॥ लिए जाते हैं तो यह सुनकर दूसरे शिष्य भी सूत्रार्थ-ग्रहण में देशदर्शन करने वाला संविग्न मुनियों में संवेग पैदा करता उद्यम करते हैं। कुछेक गृहस्थ उनके पास दीक्षा स्वीकार है। वह मुनि स्वयं सुविहित होकर सुविहित मुनियों में करते हैं। सुविहित का अर्थात् शुद्ध अनुष्ठानों का, युक्त अर्थात् १२३५.सुत्तत्थे अइसेसा, सामायारी य विज्ज-जोगाई। अप्रमादी व्यक्तियों में आयुक्त-अप्रमाद का, सुलेश्या वालों में विज्जा जोगा य सुए, विसंति दुविहा अओ होति। विशुद्ध-लेश्या का प्रभाव पैदा करता है।
अतिशेष तीन प्रकार के हैं-(१) सूत्रार्थअतिशय १२२९.नाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स। (२) सामाचारीअतिशय तथा (३) विद्यायोगअतिशय। विद्या'
अभिलावअत्थकुसलो, होइ तओ णेण गंतव्वं॥ और योग ये दोनों श्रुत में अंतर्निहित हो जाते हैं। अतः १२३०.कहयति अभासियाण वि, अभासिए आवि पव्वयावेइ। अतिशय दो प्रकार के ही होते हैं सूत्रार्थअतिशय तथा
सव्वे वि तत्थ पीई, बंधंति सभासिओ णे त्ति॥ सामाचारीअतिशय। १. विद्या स्त्रीदेवता अधिष्ठित होती है। अथवा पूर्व सेवा आदि की प्रक्रिया से साध्य होती है। मंत्र पुरुषदेवताधिष्ठित होता है अथवा पठित सिद्ध होता है। २. योग-पादलेपन आदि जिससे आकाश-गमन संभव होता है।
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