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१३२ १२३६.निक्खमणे य पवेसे, आयरियाणं महाणुभावाणं।
सामायारीकुसलो, अ होइ गणसंपवेसेणं॥ देशदर्शन करते हुए उस मुनि का महानुभाव बहुश्रुत आचार्यों के गण में विधि सहित प्रवेश करने पर, उस गण से अनेक शिष्यों का गणान्तर में निष्क्रमण और प्रवेश होने से वह सामाचारी में कुशल हो जाता है। १२३७.आगंतुसाहुभावम्मि अविदिए धन्नसालमाइठिया।
उप्पत्तियाउ थेरा, सामायारीउ ठाविति॥ वहां आगंतुक मुनियों के भावों को न जानते हुए, कई स्थविर आचार्य जो धान्यशाला आदि में स्थित हैं, वे औत्पत्तिकी अर्थात् अनुत्पन्नपूर्व सामाचारी का प्रतिपादन करते हैं। जैसे१२३८.सव्वे वि पडिग्गहए, दंसेउं नीह पिंडवायट्ठा।
अहिमरमायासंका, पडिलेहेउं व पविसंति॥ वे आचार्य पिंडपात (भिक्षाचर्या) के लिए जाने वाले मुनियों को कहते हैं सभी मुनि अपनी-अपनी गोचरी में प्रयुक्त पात्रों को दिखाकर जाएं। यह इसलिए कि कोई अभिमर अर्थात् उदायीनृपमारकवत् श्रमणवेष में आ न जाए। इस आशंका से वे आचार्य अपूर्व सामाचारी की स्थापना करते हैं। तब भिक्षाचरी से निवृत्त होकर वे मुनि गुरु के समक्ष सारी प्रत्युपेक्षा कर फिर भीतर प्रवेश करते हैं। १२३९.अब्भे नदी तलाए, कूवे अइपूरए य नाव वणी।
मंस-फल-पुप्फभोगी, वित्थिन्ने खेत्त कप्प विही॥ वह मुनि देशदर्शन करते हुए जनपदों की भी विविध प्रकार से परीक्षा करता है। वह सोचता है किस देश में धान्य की निष्पत्ति कैसे होती है? कहीं अभ्र अर्थात् वृष्टि के पानी से-जैसे लाट देश में, कहीं नदी के पानी से-जैसे सिन्धू देश में, कहीं तालाब के पानी से-जैसे द्रविड़ देश में, कहीं कूए के जल से-जैसे उत्तरापथ में, कहीं बाढ़ से जैसे बनास की बाढ़ से अथवा डिंभरेलक नगर में महिरावण नदी के पूर से धान्य की निष्पत्ति होती है। कहीं नौका से आनीत धान्य से जीवन यापन किया जाता है, जैसे-काननद्वीप में। कहीं धान्य का व्यापार होता है, जैसे-मथुरा में। जहां दुर्भिक्ष होता है वहां मांस जीवननिर्वाह का साधन बनता है। कहीं मनुष्य पुष्प और फलभोजी होते है, जैसे-कोंकण आदि देश। कहीं-कहीं क्षेत्र विस्तीर्ण होते हैं और कहीं-कहीं संकुचित। सिन्धूदेश का यह कल्प व्यवहार है कि वहां मछलियों का आहार अगर्हित माना जाता है। सिन्धूदेश में यह विधि-समाचार है कि रजक (धोबी) सांभोजिक माने जाते हैं तथा महाराष्ट्र में कल्यपाल-मदिरा का व्यापार करने वाला भी संभोज्य माना जाता है। (वृत्ति के आधार पर)
बृहत्कल्पभाष्यम् १२४०.सज्झाय-संजमहिए, दाणाइसमाउले सुलभवित्ती।
कालुभयहिए खेत्ते, जाणइ पडणीयरहिए य॥ वह ज्ञात कर लेता है कि कौनसा क्षेत्र स्वाध्याय के लिए हितकर है, कौनसा क्षेत्र संयम के लिए हितकर है, कौनसा क्षेत्र दानश्राद्धों से समाकुल है, कौनसे क्षेत्र में संयमियों के लिए वृत्ति सुलभ हो सकती है। कौनसा क्षेत्र ऋतुबद्ध काल के लिए और कौनसा क्षेत्र वर्षावास के लिए तथा कौनसा क्षेत्र उभयकाल के लिए उपयोगी है। कौनसा प्रत्यनीक रहित है. निरुपद्रवकारी है। १२४१.उवसंपज्ज थिरत्तं, पडिच्छणा वायणोल्लछगणे य।
घट्टण-रुंचण-पत्ते दुट्ठासे तहिं गए राया॥ उपसंपद्यता, स्थिरत्व, प्रतीच्छना, वाचना, आर्द्रछगणदृष्टांत, घट्टन, सूचन, पत्र, दुष्टाश्व दृष्टांत, तत्रगत, राजा का दृष्टांत। (यह द्वार गाथा है। विवरण आगे।) १२४२.काहिइ अव्वोच्छित्तिं, सुत्त-ऽत्थाणं ति सो तदट्ठाए।
अभिगम्मइ णेगेहिं, पडिच्छएहिं विहरमाणो॥ वह विहरण करने वाला भव्य आचार्य सूत्र और अर्थ का अव्यवच्छित्तिकारक होगा, यह सोचकर अनेक प्रतीच्छक शिष्य उससे सूत्रार्थ ग्रहण करने के लिए उसको प्राप्त करते हैं, उसके पास आते हैं। १२४३.वासावज्जविहारी, जइ वि य न विकंथए गुणे नियए।
अभणंतो वि मुणिज्जइ, पगइ च्चिय सा गुणगणाणं। वर्षावर्जविहारी-जो चातुर्मास में एक स्थान पर रहता है तथा अन्य काल में अनियतविहारी होता है, यद्यपि वह अपने गुणों का वर्णन नहीं करता, फिर भी बिना कहे ही वह अपने गुणों से जान लिया जाता है। यह गुणसमूह की प्रकृति है, स्वभाव है। १२४४.भमरेहिं महुयरीहिं य, सूइज्जइ अप्पणो य गंधेणं।
पाउसकालकलंबो, जइ वि निगूढो वणनिगुंजे॥ यद्यपि प्रावृट्काल में कदंबवृक्ष वन निकुंज के किसी गुप्त स्थान में पुष्पित हुआ है, फिर भी वह अपनी प्रसरणशील गंध के द्वारा भ्रमरों और मधुकरियों को अपने अस्तित्व की सूचना दे देता है, इसी प्रकार व्यक्ति के गुण भी उसकी महानता की सूचना प्रसारित करते हैं। १२४५.कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ।
कत्थ वरलक्खणधरा, न पायडा होति सप्पुरिसा॥ अग्नि कहां नहीं जलती? उदित चन्द्रमा कहां प्रकट नहीं होता? उत्तमलक्षणों को धारण करने वाले सत्पुरुष कहां प्रकट नहीं होते?
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