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पहला उद्देशक
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१२४६.उदए न जलइ अग्गी, अब्भच्छन्नो न दीसई चंदो।
मुक्खेसु महाभागा, विज्जापुरिसा न भायंति॥ जल में अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। मेघाच्छन्न आकाश में चन्द्रमा नहीं दीखता। मूों में महाभाग विद्यापुरुष शोभित नहीं होते। १२४७.सुक्किंधणम्मि दिप्पड़, अग्गी मेहरहिओ ससी भाइ।
तविहजणे य निउणे, विज्जापुरिसा वि भायंति॥ शुष्क इंधन में अग्नि दीप्त होती है। मेघरहित आकाश में चन्द्रमा शोभित होता है। तथाविध निपुण लोगों के मध्य विद्यापुरुष शोभित होते हैं। १२४८.कुमुओयररसमुद्धा, किं न विबोहिंति पुंडरीयाई।
सूरकिरणा ससिस्स व, कुमुयाणि अपंकयरसन्ना॥ १२४९.न य अप्पगासगत्तं, चंदा-ऽऽइच्चाण सविसए होइ।
इय दिप्पंति गुणड्डा, मुक्खेसु हसिज्जमाणा वि॥ कुमुदपुष्पों के उदर में प्राप्त मकरंद से अनभिज्ञ सूर्य की किरणें उन पुष्पों को विकसित नहीं करतीं, किन्तु क्या वे पुंडरीक पुष्पों को विकसित नहीं करतीं? अवश्य करती हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा की किरणें कमल के रस से अनभिज्ञ होने के कारण कमलों को प्रबुद्ध नहीं करतीं, किन्तु क्या वे कुमुदपुष्पों को प्रबुद्ध नहीं करतीं? अवश्य करती हैं। इसलिए चन्द्र और सूर्य का स्वविषय में अप्रकाशकत्व नहीं होता। मूों में उपहास के पात्र होने वाले गुणाढ्य व्यक्ति निपुणों में दीप्त होते ही हैं। १२५०.सो चरणसुट्ठियप्पा, नाणपरो सूइओ अ साहूहिं।
उवसंपया य तेसिं, पडिच्छणा चेव साहूणं ।। देशदर्शन के लिए प्रस्थित चारित्र में सुप्रतिष्ठित, ज्ञानवान् वह भावी आचार्य मुनियों द्वारा सूचित-श्लाघ्य होता है। मुनि उसके पास उपसंपन्न होते हैं। वह आचार्य उनकी प्रतीच्छना करे। १२५१.ण्हाणाइ समोसरणे, परियट्टितं सुणित्तु सो साहुं।
अट्टि त्ति पडिच्चोयण, उवसंपय दीवणा अत्थे॥ वह आचार्य स्नान, रथयात्रा आदि महोत्सवों तथा समवसरण (साधु सम्मेलनों) में किसी मुनि को आगमपाठों का परावर्तन करते हुए सुनता है और उसको प्रेरणा देते हुए कहता है-'अट्टे लोए'-ऐसा पढ़ो। ('अट्टि लोए' नहीं।) उसके द्वारा ‘क्यों' ऐसा पूछने पर भावी आचार्य ने उसे 'अट्टे लोए' का अर्थ विस्तार से समझाया। अर्थ गांभीर्य को सुनकर वह मुनि उन आचार्यों के पास उपसंपन्न हो गया। आचार्य ने उसमें अर्थ की उद्दीपना की। १२५२.अहवा वि गुरुसमीवं, उवागए देसदसणम्मि कए।
उवसंपय साहणं, होइ कयम्मी दिसाबंधे॥
अथवा देशदर्शन कर वह मुनि गुरु के समीप उपस्थित होता है। गुरु उसको आचार्यपद पर प्रतिष्ठित कर, दिशाबंध की अनुज्ञा देते हैं, दिशाबंध कर देने पर प्रतीच्छक साधुओं की उपसंपदा होती है। (उपसंपद् द्वार की तीन प्रकार से व्याख्या संपन्न हुई।) १२५३.आयपरोभयतुलणा, चउब्विहा सुत्तसारणित्तरिया।
तिण्हऽट्ठा संविग्गे, इयरे चरणेहरा नेच्छे।। स्व और पर-दोनों की तुलना करनी चाहिए। वह प्रत्येक के चार-चार प्रकार की होती है। जो गृहस्थ प्रवृजित होते हैं अथवा उपसंपदा ग्रहण करते हैं, वह उनको सूत्रसारणा अर्थात् सूत्र पढ़ाता है। वह दोनों को इत्वर दिशा देते हुए कहता है जब तक हम आचार्य के पास न पहुंचे तब तक मैं ही तुम्हारा आचार्य और उपाध्याय हूं। वहां पहुंचने पर आचार्य जैसा चाहें वैसा करें। जो संविग्न मुनि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिए उपसंपन्न होते हैं, उन्हें स्वीकार करें। जो इतर अर्थात् पार्श्वस्थ आदि चारित्र के लिए उपसंपन्न होते हैं, उन्हें भी उपसंपदा दे। जो केवल ज्ञान-दर्शन के लिए, सूत्रार्थ के लिए अथवा दर्शन प्रभावक शास्त्रों के अध्ययन के लिए उपसंपन्न होना चाहते हैं, उनको उपसंपदा न दे। १२५४.आहाराई दव्वे, उप्पाएउं सयं जइ समत्थो।
खेत्तओ विहारजोग्गा, खेत्ता विहतारणाईया।। १२५५.कालम्मि ओममाई, भावे अतरंतमाइपाउग्गं।
कोहाइनिग्गहं वा, जं कारण सारणा वा वि। आत्मतुला के चार प्रकार हैं-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्यतः-वह सोचे कि क्या वह उन उपसंपन्न व्यक्तियों के लिए एषणीय आहार आदि की प्राप्ति स्वयं करने में समर्थ है? इसी प्रकार उपधि, शय्या आदि की भी। क्षेत्रतः-क्या वह ऋतुबद्रकालयोग्य तथा वर्षाकालयोग्य क्षेत्र की गवेषणा कर सकता है? क्या वह अपने साथियों को मार्ग से पार लगा सकता है? कालतः-क्या मैं दुर्भिक्ष आदि काल में सबका निर्वाह कर सकता हूं? भावतः क्या मैं असमर्थ और व्याधिग्रस्त व्यक्तियों के प्रायोग्य (पथ्य) का उत्पादन करने में समर्थ हूं ? क्या मैं क्रोध आदि का निग्रह कर सकता हूं? क्या किसी भी कारण से (ज्ञान आदि के निमित्त) उपसंपन्न होने वाले इनकी सारणा करने में समर्थ हूं? १२५६.आहाराइ अनियओ, लंभो सो विरसमाइ निज्जूढो।
उन्भामग खुलखेत्ता, अरिउहियाओ अ वसहीओ।। १२५७.ऊणाइरित्त वासो, अकाल भिक्ख पुरिमल ओमाई।
भावे कसायनिग्गह, चोयण न य पोरुसी नियया। परतुला-प्रतीच्छकों को प्रारंभ में ही कह दिया जाता
आत्मतुला
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