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है, द्रव्यतः आहार आदि का लाभ अनियत होता है। वह विरस और उज्झितप्राय मिलता है। क्षेत्रतः उद्भामक भिक्षाचर्या अर्थात गांव के बाहर भी भिक्षा के लिए जाना पड़ता है खुलक्षेत्र अर्थात् ऐसे क्षेत्रों में विहरण करना होता है जहां भिक्षादाता अल्प होते हैं और वे भी कम भिक्षा देते हैं। ऋतुओं में अननुकूल वसतियों में रहना पड़ता है । कालतः काल की अपेक्षा से कहीं अधिक और कहीं न्यून रहना होता है। कहीं अकाल में भिक्षा प्राप्त होती है। कहीं दिन का पूर्वार्द्ध पूरा बीत जाने पर भी अल्प भिक्षा प्राप्त होती है। भावतः कषाय का निग्रह करना पड़ता है । कठोर और परुष भाषा में प्रेरित किए जाने पर उसे सहना होता है। सूत्रार्थपौरुषी भी नियत नहीं हो सकती। यदि ये सारी बातें स्वीकृत हों तो उपसंपदा स्वीकार करें।
१२५८. अत्तणि य परे चेवं, तुलणा उभय थिरकारणे वृत्ता ।
पडिवज्जते सव्वं करिति सुहाए दिद्रुतं ॥ इस प्रकार आत्मविषयक तथा परविषयक- दोनों प्रकार की तुलनाएं स्थिर करने के लिए कही गई हैं । यदि प्रतीच्छक सारी बातें स्वीकार करते हैं तब आचार्य पुत्रवधू का दृष्टांत कहते हैं।
१२५९. आस-रहाई ओलोयणाह भीया ऽऽउले अ पेहंती सकुलघरपरिचएणं, वारिज्जइ ससुरमाईहिं ॥ १२६०. प्रिंसिज्जइ हम्मइ वा, नीणिज्जइ वा घरा अठाईती । नीया पुण से दोसे, छायंति न निच्छुभंते य ॥ कोई वधू अपने स्वकुलगृह - पितृगृह में अनेक रमणीय वस्तुओं को देखने की स्वभाववाली थी। वह श्वसुरगृह में भी पूर्व आदत के कारण गवाक्ष में बैठकर अश्व, रथ अथवा भीत स्त्री-पुरुषों तथा आकुल व्यक्तियों को देखती रहती । श्वसुर आदि ने उसको वहां बैठकर देखने का निषेध किया। यदि वह नहीं मानती है तो उसकी निन्दा करते हैं। फिर भी यदि वह निवर्तित नहीं होती है तो उसको ताड़ना तर्जना दी जाती है इतना होने पर भी वह निवृत्त नहीं होती है तो उसे घर से निकाल दिया जाता है। उस वधू के जो पितृगृहसंबंधी स्वजन होते हैं वे उसके दोषों को ढंकते हैं, परंतु उसको घर से निष्कासित नहीं करते।
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१२६१. मरिसिज्जइ अप्पो वा, सगणे दंडो न यावि निच्छुभणं ।
अम्हे पुण न सहामो, ससुरकुलं चैव सुहाए ॥ आचार्य उन प्रतीच्छकों को कहते हैं-तुम अपने गण में प्रमाद का सेवन करते, तो वह सहन हो जाता अथवा अल्प दंड लेकर निवृत्त हो जाते, वहां से निष्कासन नहीं होता। हम
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बृहत्कल्पभाष्यम
तुम्हारा थोड़ा भी अपराध सहन नहीं करेंगे। जैसे श्वसुरकुल में वधू का थोड़ा भी अपराध सहन नहीं किया जाता। १२६२.पासत्थाईमुंडिए, आलोयण होइ दिक्खपभिईओ ।
संविग्गपुराणे पुण, जप्यभिहं चेव ओसन्नी ॥ जो पार्श्वस्थ आदि से मुंडित है उसकी आलोचना दीक्षा दिन के प्रारंभ से होती है और जो पुराणसंविग्न है ( जो पहले संविग्न था, फिर अवसन्न हो गया) वह जिस दिन से अवसन्न हुआ, उसी दिन से उसकी आलोचना होती है।
१२६३. समणुन्नमसणुन्ने, जप्यभिदं चैव निग्गओ गच्छा ॥
सोहिं पडिच्छिऊणं, सामायारिं पयंसंति ॥ संविग्न के दो प्रकार है-समनोज्ञ (साम्भोगिक) तथा असमनोज्ञ (असाम्भोगिक) । ये दोनों प्रकार के संविग्न जिस दिन से अपने गच्छ से निर्गत हुए हैं, उसी दिन से आलोचना होती है। उनको शोधि प्रायश्चित्त देकर आचार्य अपनी सामाचारी बतलाते हैं।
१२६४. अवि गीय- सुयहराणं, चोइज्जताण मा हु अचियत्तं ।
मेरासु य पत्तेयं, माऽसंखड पुव्वकरणेणं ॥ उपसंपद्यमान गीतार्थ हो, श्रुतधर हो, बहुश्रुत-गणीयाचक आदि शब्दों से अभिहित हो, उसके पूर्वाभ्यस्त पृथक-पृथक मर्यादाओं तथा सामाचारियों में प्रवर्तमान होने पर, वैसा न करने की प्रेरणा देने पर उनको अप्रीतिकर न लगे तथा कलह न हो इसलिए आचार्य चक्रवाल- सामाचारी के विषय में अनुशासना देते हैं।
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१२६५. गच्छ वियारभूमाइ वायओ देह कप्पियारं से। तम्हा उ चक्रवालं कहिति अणहिंडिय निसिं वा ॥ कोई वाचक विचारभूमी आदि में जा रहा है इसलिए उसके साथ कोई 'कल्पितार'-कल्प को जानने वाला साधु वो जो उसे सही सामाचारी का बोध कराए। इसलिए आचार्य उन नूतन उपसंपन्नों के समक्ष चक्रवाल - सामाचारी का कथन करते हैं। उसकी असमाप्ति तक उनको भिक्षार्थ नहीं भेजा जाता । दिन में यदि सामाचारी का कथन पूर्ण नहीं होता है तो रात्री में उसका कथन किया जाता है। १२६६. उवएसो सारणा चेव, तइया
पडिसारणा । छंद अवद्रुमाणं, अप्पछंदेण बज्जेज्जा ॥ आचार्य उनको सूत्रार्थ की वाचना दे। उसमें प्रमाद करने पर उपदेश, स्मारण और तीसरा है प्रतिस्मारणा । तत्पश्चात छंद में अप्रवर्तमान होने पर आत्मच्छंद से वर्जना करे। (इसका विस्तृतार्थ आगे)
१२६७. निहापमायमाइस, सई तु खलियस्स सारणा होइ। न कहिय ते पमाया, मा सीयसु तेसु जाणतो ॥
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