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पहला उद्देशक
आचार्य उसको कहते हैं हमारी यह सामाचारी है कि पानी रहित दूध चूल्हे पर चाल्यमान होने पर भी जल निद्रा-विकथा आदि का परिहार करना चाहिए। यह उपदेश जाता है, नष्ट हो जाता है--इतना कहने पर भी यदि वह मुनि है। निद्राप्रमाद आदि में एक बार स्खलना करने पर स्मारणा पुनः प्रमादाचरण करता है तो उसे मासलघु का दंड आता कराई जाती है। उसे कहे-हमने पहले ही प्रमादों के विषय में है। यह दूसरा उदाहरण है। फिर भी यदि वह प्रमाद से बतला दिया था। जानते हुए भी उन प्रमादों का सेवन मत उपरत नहीं होता है तब 'रुंचना' का दृष्टांत दिया जाता है। करो। यह स्मारणा है।
क्या अत्यधिक पीसे जाने पर कुंकुम पाषाण बन जाता है? १२६८. फुड-रुक्खे अचियत्तं, गोणो तुदिओ व मा हु पेल्लेज्जा। (इसी प्रकार हे मुने! अत्यधिक कहे जाने पर भी तुम
सज्जं अओ न भन्नइ, धुव सारण तं वयं भणिमो॥ पाषाणसदृश हो गए हो?) यह तीसरा उदाहरण है। प्रतिस्मारणा का स्वरूप-जिसने जो प्रमाद किया है, १२७२.तेण परं निच्छुभणा, आउट्टो पुण सयं परेहिं वा । उसको परिस्फुट रूप से न कहे, न रूक्ष शब्दों में बताए। __ तंबोलपत्तनायं, नोसेहिसि मज्झ अन्ने वि॥ इससे उसमें अप्रीति उत्पन्न हो सकती है। जैसे बैल यदि तीन बार सावधान किए जाने पर भी वह मुनि अत्यधिक व्यथित होकर निश्चित ही भार को नीचे गिरा देता प्रमादाचरण से उपरत नहीं होता है तो उसे गच्छ से निकाल है, वैसे ही यह मुनि भी खर-परुष वाणी से तुदित होकर, देना चाहिए। स्व या पर प्रेरणा से यदि वह प्रमाद से संयमभार को छोड़कर भाग जाता है। प्रमाद को तत्काल उसे प्रतिनिवृत्त होता है तब उसे तंबोल-पत्र का दृष्टांत कहा नहीं बताना चाहिए। उसे कहना चाहिए-वत्स! हमें प्रमाद जाता है। देखो, तंबोल के कुथित पत्र को यदि नहीं निकाला करने वाले की निश्चित स्मारणा करनी चाहिए। इसीलिए हम जाता है तो वह सारे तंबोलपत्रों का नाश कर डालता है। तुम्हें तुम्हारे प्रमाद की स्मृति दिलाने के लिए ऐसा कह रहे इसी प्रकार तुमको यदि हम निष्कासित नहीं करते हैं तो तुम हैं, मत्सर और प्रद्वेष से नहीं।
स्वयं विनष्ट होकर मेरे दूसरे मुनियों का भी विनाश करोगे। १२६९.तदिवसं बिइए वा, सीयंतो वुच्चए पुणो तइयं। अतः तुमको निष्कासित करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।
___ एगोऽवराहो ते सोढो, बीयं पुण ते न विसहामो॥ १२७३.सुहमेगो निच्छुब्भइ, णेगा भणिया उ जइ न वच्चंति। जो मुनि सामाचारी में प्रमाद करता है उसको उसी दिन
अन्नावएस उवहि, जग्गावण सारिकह गमणं॥ किसी समय में अथवा दूसरे दिन पुनः उसे कहा जाता है, गच्छ से जब मुनि को निष्कासित करना होता है तब वह यह तीसरी प्रतिस्मारणा है। (एक उपदेश, दूसरी स्मारणा सुखपूर्वक किया जा सकता है। परंतु जहां अनेक मुनियों का और तीसरी प्रतिस्मारणा।) उसे कहे तुम्हारा एक अपराध निष्कासन करना है और उनको कहने पर भी यदि वे गण से को तो हमने सहन कर लिया है, दूसरा अपराध हम सहन । बहिर्गमन नहीं करते हों तो अन्य किसी मिष ने उनसे नहीं करेंगे।
छुटकारा पा लेना चाहिए। सबसे पहले विहारयोग्य उपधि १२७०.गोणाइहरणगहिओ, मुक्को य पुणो सहोढ गहिओ उ। की व्यवस्था कर लेनी चाहिए। तदनन्तर उन साधुओं को
उल्लोल्लछगणहारी, न मुच्चए जायमाणो वि॥ एक रात तक लंबा जागरण कराना चाहिए, जिससे वे प्रातः एक चोर गायों को चुरा कर ले जाता हुआ पकड़ा गया। शीघ्र न जागे। फिर 'सारिकह'-शय्यातर को अपनी बात उसके गिड़गिड़ाने पर उसको छोड़ दिया। अब वह बताकर वहां से (अपने साथी मुनियों के साथ) आचार्य को आर्द्रच्छगणहारी-स्वल्पचोरी करने वाला हो गया। एक विहार कर देना चाहिए। बार वह रंगे हाथों (चोरी के सामान सहित) पकड़ा गया। १२७४.मुक्का मो दंडरुइणो, भणंति इइ जे न तेसु अहिगारो। उसके मुक्ति की याचना करने पर भी उसे छोड़ा नहीं जाता। सेज्जायरनिब्बंधे, कहियाऽऽगय न विणए हाणी॥ (इसी प्रकार मुनि को कहे-हमने एक बार तुम्हारे प्रमाद को इस प्रकार आचार्य के चले जाने पर जो मुनि यह सोचते सहन किया है। अब दूसरी बार नहीं करेंगे। फिर भी यदि वह हैं-अच्छा हुआ, हम दंडरुचि-उग्रदंड देने वाले आचार्य से प्रमाद करता है तो उसे मासलघु दंड देकर घटना दृष्टांत से मुक्त हो गए। ऐसा जो कहते हैं, उनका यहां प्रसंग नहीं है। समझाया जाता है।)
परंतु जो मुनि आचार्य के बिना परितस होते हैं, वे शय्यातर १२७१.घट्टिज्जंतं वुच्छं, इति उदिए दंडणा पुणो बिइयं को बलपूर्वक आचार्य के गमन के विषय में पूछते हैं।
पासाणो संवुत्तो, अइरूंचिय कुंकुम तइए॥ शय्यातर के बतलाने पर वे आचार्य के पास आते हैं और १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५५।
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