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= बृहत्कल्पभाष्यम्
विनय की हानि न करते हुए वे आचार्य के प्रति पूर्ववत् विनय का प्रयोग करते हैं। १२७५.को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए।
दुटे वि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं विति॥ (तब आचार्य कहते हैं-दुष्ट अश्वों के प्रति सारथित्व करने की भांति इन प्रमादी साधुओं के प्रति आचार्यकरण से क्या प्रयोजन?) शिष्य कहते हैं-भद्र अश्वों का दमन करने में कौन सा सारथित्व है? जो दुष्ट अश्वों का दमन करता है उसको लोग अश्वंदम कहते हैं। १२७६.होंति हु पमाय-खलिया, पुव्वब्भासा य दुच्चया भंते!।
न चिरं च जंतणेयं, हिया य अच्चंतियं अंते॥ ___ भंते ! पूर्वाभ्यास (अनेक जन्मों के अभ्यास से) के कारण ये दुस्त्यज प्रमाद की भूलें होती हैं। स्मारणा आदि यंत्रणा भी चिरकालभावी नहीं होती। परंतु वह अंत में आत्यंतिक हितकारी होती है। १२७७.अच्छिरुयालु नरिंदो, आगंतुअविज्जगुलियसंसणया।
विसहामि त्ति य भणिए, अंजण वियणा सुहं पच्छा॥ (उन शिष्यों को स्थिर करने के लिए आचार्य राजा का दृष्टांत कहते हैं।) एक राजा के अक्षिरोग हो गया। वास्तव्य वैद्यों से वह रोग नहीं मिटा। एक आगंतुक वैद्य ने कहा- मेरे पास गुटिकाएं हैं। वे अक्षिरोग को मिटाने वाली हैं। उन गुटिकाओं को आंख में आंजने से क्षणभर के लिए तीव्रतर वेदना होती है। राजन् ! यदि उस वेदना को सहन कर सकें तो रोग मिट जाएगा। राजा ने कहा-मैं सहन कर लूंगा। वैद्य ने तब गुटिका से आंखें आंज ली। वेदना हई। अंत में अक्षिरोग नष्ट हो गया। १२७८.इय अविणीयविवेगो, विगिंचियाणं च संगहो भूओ।
जे उ निसग्गविणीया, सारणया केवलं तेसिं॥ इस प्रकार अविनीत शिष्यों का परित्याग और परित्यक्त शिष्यों का संविग्न होने पर पुनः संग्रहण करना चाहिए। जो निसर्गतः विनीत होते हैं, उनके लिए तो केवल स्मारणा ही पर्याप्त होती है। १२७९.एवं पडिच्छिऊणं, निप्फत्तिं कुणइ बारस समाओ।
एसो चेव विहारो, सीसे निप्फाययंतस्स॥ इस प्रकार देशदर्शन करता हुआ शिष्य बारह वर्षों तक शिष्य-प्रतीच्छकों की निष्पत्ति करता है। यही शिष्यों के निष्पादन करने वाले का विहार है। (इसकी भावना यह है-जो शिष्य देशदर्शन करके गुरु के पास आया है, उसे गुरु आचार्यपद पर स्थापित कर दिग-अनुबंध की अनुज्ञा देते हैं १. 'आउ' त्ति उताहो।
और वह नौकल्पीविहार करता हुआ उसने जिस शिष्यनिष्पादन विधि का पालन किया है, वही विधि बारह वर्षों तक रहती है।) १२८०.अव्वोच्छित्ती मण पंचतुलण उवगरणमेव परिकम्मे।
तवसत्तसुएगत्ते, उवसग्गसहे य वडरुक्ने॥ (जिनकल्पिकों की विहार विधि)
अव्यवच्छित्ति, मन, पांच तुलाएं, उपकरण, परिकर्म, तपः-सत्व-श्रुत-एकत्व-उपसर्गसह-पांच भावनाएं, वटवृक्ष। (यह द्वार गाथा है। विस्तार आगे।) १२८१.अणुपालिओ य दीहो, परियाओ वायणा वि मे दिन्ना।
निप्फाइया य सीसा, सेयं खु महऽप्पणो काउं॥ आचार्य सोचते हैं-मैंने दीर्घकाल तक संयम-पर्याय का अनुपालन किया है। मैंने वाचना भी दी है। मैंने शिष्यों का निष्पादन भी किया है। इस प्रकार मैं तीर्थ की अव्यवच्छित्ति कर ऋणमुक्त हो गया हूं। अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं आत्मा का हित करूं। १२८२.किन्नु विहारेणऽब्भुज्जएण विहरामऽणुत्तरगुणेणं ।
आओ अब्भुज्जयसासणेण विहिणा अणुमरामि।। क्यों नहीं मैं अनुत्तरगुणों वाले अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प) को स्वीकार कर विहरण करूं ? अथवा सूत्र में वर्णित अभ्युद्यतमरण विषयक शासन के अनुसार पहले संलेखना कर फिर उस मरण को स्वीकार करूं। १२८३.जिण सुद्ध अहालंदे, तिविहो अब्भुज्जओ अह विहारो।
__ अब्भुज्जयमरणं पुण, पाओवग-इंगिणि-परिन्ना॥
अभ्युद्यतविहार तीन प्रकार का है-जिनकल्प, शुद्धपरिहारकल्प तथा यथालंदकल्प। अभ्युद्यतमरण के तीन प्रकार हैं-पादपोपगमन (प्रायोपगमन), इंगिनीमरण तथा परिज्ञा-भक्तप्रत्याख्यानमरण। १२८४.सयमेव आउकालं, नाउं पोच्छित्तु वा बहु सेसं।
सुबहुगुणलाभकंखी, विहारमब्भुज्जयं भजइ। (दोनों श्रेष्ठ हैं। दोनों में से किसका ग्रहण उचित है?) आचार्य कहते हैं-मुनि स्वयमेव अपने विशिष्ट श्रुतोपयोग से अथवा श्रुत आदि अतिशययुक्त आचार्य को पूछकर अपने आयुष्यकाल को बहुत अवशिष्ट जान लेता है तब वह अत्यधिक गुणों के लाभ का आकांक्षी होकर अभ्युद्यत विहार को स्वीकार करता है। (अवशिष्ट आयुकाल अल्प होने पर वह अभ्युद्यतमरण स्वीकार करता है।) १२८५. गणनिक्खेवित्तरिओ, गणिस्स जो व ठविओ जहिं ठाणे।
उवहिं च अहागडयं, गिण्हइ जावऽन्न णुप्पाए।
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