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पहला उद्देशक
आचार्य गण का निक्षेप इत्वरिक करते हैं, यावज्जीवन नहीं। जो उपाध्याय आदि उस पद पर स्थापित होते हैं, वे भी इत्वरिक ही होते हैं। वे यथाकृत उपधि को ही धारण करते हैं। अपने कल्पयोग्य उपधि का उत्पादन होने पर पूर्व उपधि का परित्याग कर देते हैं। १२८६.इंदिय-कसाय-जोगा, विणियमिया जइ वि सव्वसाहूहि।
तह वि जओ कायव्वो, तज्जयसिद्धिं गणितेणं॥ यद्यपि सभी साधुओं ने विविध प्रकार से इन्द्रियों, कषायों और योगों को नियंत्रित किया है, फिर भी जिनकल्प को स्वीकार करने वाले साधक को जिनकल्प की पारगामिता के लिए इन्द्रियों आदि पर जय प्राप्त करनी चाहिए। १२८७.जोगिदिएहिं न तहा, अहिगारो निज्जिएहिं न हु ताई।
कलुसेहिं विरहियाई, दुक्खसईबीयभूयाई॥ योग और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का विशेष प्रयोजन नहीं है, क्योंकि वे कषायों से विरहित होने पर दुःखरूपी सस्य की उत्पत्ति के बीजभूत नहीं हैं। (अर्थात् कषाय ही दुःख परम्परा के मूल बीज हैं।) १२८८.जेण उ आयाणेहिं, न विणा कलुसाण होइ उप्पत्ती।
तो तज्जयं ववसिमो, कलुसजयं चेव इच्छंता॥ आदानों-इन्द्रियों तथा योगों के बिना कषायों की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए हम कषायजय की इच्छा करते हुए इन्द्रियों और योगों के विजय की इच्छा करते हैं। १२८९.खेयविणोओ साहसजओ य लहुया तवो असंगो अ।
सद्धाजणणं च परे, कालन्नाणं च नऽन्नत्तो।। भावनाओं से भावित आत्मा के गुण
तपोभावना से खेद विनोद अर्थात् परिश्रम पर विजय प्राप्त होती है। सत्त्वभावना से साहसजय' अर्थात भयविजय, एकत्वभावना से लघुता का विकास, श्रुतभावना से तप का विकास, धृतिभावना से निर्ममत्व का विकास होता है।
प्रकारान्तर से श्रुतभावना से अन्य व्यक्तियों में श्रद्धा की उत्पत्ति होती है। कालज्ञान दूसरे किसी साधन से जानने की आवश्यकता नहीं होती, वह श्रुतपरावर्तन से हो जाता है। १२९०.सरवेह-आस-हत्थी-पवगाईया उ भावणा दव्वे।
अब्भास भावण त्ति य, एगटुं तत्थिमा भावे॥ १. प्रश्न होता है इत्वरिक क्यों? आचार्य कहते हैं-गण का पालन राधावेध
की भांति सुदुष्कर है। नए स्थापित आचार्य उसकी पालना कर सकते हैं या नहीं? यदि न कर सकें तो जिनकल्प साधना स्वीकार नहीं करना है। जिनकल्प की साधना से भी श्रेष्ठतर है सूत्रोक्तविधि से गण का अनुपालन। वह बहुतर निर्जरा का कारण बनता है। बहुत लाभ को छोड़कर अल्प लाभ के लिए प्रयत्नशील नहीं होना चाहिए।
भावना के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः भावना और भावतः भावना। धनुर्धर पहले स्थूल वस्तुओं का वेध करता है, फिर स्वरवेध में पारंगत हो जाता है। दौड़ने का अभ्यास करतेकरते अश्व बड़े-बड़े गढ़ों को लांघ जाता है। हाथी अपनी सूंड से स्थूल पदार्थों के अभ्यास को आगे बढ़ाते हुए सूक्ष्म पदार्थों को भी उठाने लग जाता है। नट पहले बांस पर करतब दिखाता है। अभ्यास परिपक्व होने पर आकाश में भी करतब दिखाने लगता है। ये सारी द्रव्यतः भावनाएं हैं। अभ्यास और भावना एकार्थक हैं। आगे वक्ष्यमाण भावतः भावनाएं हैं। १२९१.दुविहाओ भावणाओ, असंकिलिट्ठा य संकिलिट्ठा य।
मुत्तूण संकिलिट्ठा, असंकिलिट्ठाहि भावंति। भावतः भावना के दो प्रकार हैं-असंक्लिष्ट और संक्लिष्ट। जिनकल्प स्वीकार करने वाले संक्लिष्ट भावना को छोड़कर असंक्लिष्ट भावना से भावित होते हैं। १२९२.संखा य परूवणया, होइ विवेगो य अप्पसत्थासु।
एमेव पसत्थासु वि, जत्थ विवेगो गुणा तत्थ।। अप्रशस्त भावनाओं की संख्या तथा उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। अप्रशस्त भावनाओं का विवेक-परित्याग होता है। इसी प्रकार प्रशस्त भावनाओं की संख्या और उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। जहां विवेक शब्द है वह अप्रशस्त भावनाओं के संदर्भ में ही है। तथा जहां गुण शब्द है वह प्रशस्त भावनाओं का द्योतक है।' १२९३.कंदप्प देवकिव्विस, अभिओगा आसुरा य सम्मोहा।
एसा य संकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा भणिया। सक्लिष्ट भावनाएं-अप्रशस्त भावनाएं पांच कही गई हैं१. कंदर्प भावना, २. दैवकिल्विषी भावना, ३. आभियोगी भावना ४. आसुरी भावना, ५. साम्मोही भावना। १२९४.जो संजओ वि एआसु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ।
सो तविहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो। इन अप्रशस्त भावनाओं का फल
जो साधु होकर भी इन अप्रशस्त भावनाओं से अपने आपको भावित करता है वह उन प्रकार के कान्दर्पिक आदि देवताओं में उत्पन्न होता है। जो चरणरहित है उसकी यहां भजना है, विकल्प है। वह उस प्रकार के देवों में अथवा नारक, तिर्यंच या मनुष्यों में उत्पन्न होता है। २. साहसं भयं.....चूर्णि, विशेषचूर्णि। ३. यह व्याख्या चूर्णि के अनुसार है। विशेषचूर्णि की व्याख्या इस प्रकार
हे-जहां प्रशस्त वस्तु का भी विवेक-परित्याग है वहां गुण ही होते हैं। जैसे-आचार्य आदि का अवर्णवाद सुनने में औदासीन्यभाव रखना गुण ही है। स्थविरकल्पी की भांति यथाशक्ति उसका निवारण न करना दोष ही है।
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