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१२९५. कंदप्पे कुकुड़ए, दवसीले यावि हासणकरे य विम्हाविंतो य परं, कंदप्पं भावणं भावणं कुणइ ॥ कंदर्पवान्, कौत्कुच्यवान्, द्रवशील, हासनकर तथा दूसरे को विस्मापित करने वाला ये कान्दप भावना करते हैं।
१२९६. कहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अनिहुया य संलावा । कंदप्पकहाकहणं, कंदपुवएस संसा य ॥ मुंह फाड़कर जोर-जोर से हंसना - अट्टट्टहास करना, कंदर्प अर्थात् अपने अनुरूप के साथ परिहास करना, गुरु आदि के साथ वक्रोक्ति से संलाप करना, कंदर्पकथा का कथन, कामोपदेश तथा कामाशंसा काम की प्रशंसा यह सारा कंदर्प है।
१२९७. भुम - नयण वयण- दसणच्छदेहिं
कर-पाद- कण्णमार्हहिं ।
तं तं करेइ जह हस्सए
परो अत्तणा अहसं ॥ १२९८. वायाकोक्कुइओ पुण, तं जंपइ जेण हस्सए अन्नो । नाणाविहजीवरुए, कुब्बइ मुहतूरए चेव ॥ कुत्कुच का अर्थ है-भांड की तरह चेष्टा करना । वह दो प्रकार का है- शरीर से कुत्कुच करना, वाणी से कुत्कुच करना । भ्रू, नयन, वदन, दशनच्छद, हाथ, पैर और कान आदि शरीर के अवयवों से ऐसी चेष्टाएं करना जिनसे स्वयं न हंसते हुए दूसरों को हंसाना यह कायकीत्कुच्य है। वाणी से कीत्कुच्य वह होता है जो ऐसी बात कहता है जिससे दूसरा हंस पड़े। वह नाना प्रकार के जीवों की बोलियों का अनुकरण करता है अथवा मुंह से वाद्य बजाने की आवाज निकालता है।
१२९९. भासइ दुयं दुयं गच्छए अ दरिउ व्व गोविसो सरए । सव्वद्दुयदुयकारी फुट्टइ व ठिओ वि दप्पेणं ॥ जो बिना विचारे आवेशवश जल्दी-जल्दी बोलता है, जो शरद ऋतु में दर्पित गोवृष की भांति त्वरित चलता है, जो सभी क्रियाओं को अति त्वरा से करता है, जो स्थित अर्थात् स्वभावस्थ होकर भी दर्प से मानो फूट रहा हो ऐसा लगता है, वह द्रवशील होता है।
१३००, वेस वयणेहिं हासं जणयंतो अप्पणी परेसिं च
अह हासणो ति भन्नइ, घयणो व्व छले नियच्छंतो।। जो घयण - भांड की भांति दूसरों के छिद्रों-विरूपवेष और भाषा का विपर्यय करता हुआ वैसे ही वेष और वचनों से दूसरों में हास्य उत्पन्न करता है वह हासन अर्थात् हास्यक कहलाता है।
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बृहत्कल्पभाष्यम् १३०१. सुरजालमाइएहिं तु विम्हयं कुणइ तव्विहजणस्स । तेसु न विम्हयइ सयं, आहट्ट- कुहेडएहिं च ॥ जो इन्द्रजाल तथा आहर्त प्रहेलिका कुहेटक- वक्रोकि आदि के द्वारा तथाविध साम्य लोगों को विस्थापित करता है, किन्तु स्वयं विस्मापित नहीं होता, वह परविस्मापक होता है। १३०२. नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सवसाहूणं ।
माई अवन्नवाई, किव्विसियं भावणं कुणइ || जो ज्ञान का, केवलियों का धर्माचार्यों का तथा सभी साधुओं का अवर्णवाद बोलता है वह मायी किल्विषिक भावना करता है।
१३०३. काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारिगाणं, जोइसजोणीहिं किं च पुणो ॥ श्रुत का अवर्णवाद बोलने वाले कहते हैं बड़जीवनिकाय तथा व्रत बार-बार आगमों में कहे जाते हैं। इसी प्रकार स्थान-स्थान पर प्रमाद और अप्रमाद का बार- बार वर्णन किया जाता है। यदि मोक्षाधिकारी साधुओं के लिए ही प्रवचन हो तो फिर सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ज्योतिषशास्त्रों तथा योनिप्राभृत आदि ग्रंथों से क्या प्रयोजन ? १३०४. एगंतरमुप्पाए, अन्नोन्नावरणया दुवेहं केवलदंसण णाणाणमेगकाले व
एमतं ॥
केवलियों का अवर्णवाद क्या केवलियों के ज्ञान-दर्शन का उपयोग क्रमशः होता है अथवा एक साथ ? क्रमशः होना मानें तो केवली जिस समय जानता है तो उस समय देखता नहीं और जिस समय देखता है तो उस समय जानता नहीं । इस प्रकार दोनों का एकांतरित उत्पाद होने पर दोनों का अन्योन्यावरणता हो जाएगी। युगपद मानने पर साकार अनाकार उपभोग का एकत्व हो जाएगा। (इनका स्पष्टीकरण विशेषावश्यक भाष्य (गाथा ३०८८-३१२४) में विस्तार से प्राप्त है।)
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१३०५.जच्चाईहिं अवन्नं, भासइ वट्टइ न यावि उववाए । अहितो छिप्पेही, पगासवादी अणणुकुलो ॥ धर्माचार्यों का अवर्णवाद उनके कुल, जाति आदि के विषय में अवर्णवाद बोलना जैसे इनकी जाति और कुल विशुद्ध नहीं है। ये लोकव्यवहारकुशल और औचित्य को जानने वाले भी नहीं हैं। ये गुरु कि सेवा में नहीं रहतें, ये अहित - अनुचित कार्य करने वाले हैं, ये गुरु के छिद्रान्वेषी हैं, ये प्रकाशवादी हैं अर्थात् सभी के समक्ष गुरु के दोषों का कथन करने वाले हैं, ये अननुकूल हैं गुरु के प्रत्यनीक हैं। १३०६. अविसहणाऽरियगई, अणाणुवत्तीय अवि गुरुणं पि खणमित्पीड- रोसा, गिहिवच्छलकाऽइसंचइआ ॥
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