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-बृहत्कल्पभाष्यम्
११७९.मणि-रयण-हेमया वि य,
कविसीसा सव्वरयणिया दारा। सव्वरयणामय च्चिय,
पडाग-झय-तोरणा चित्ता॥ आभ्यन्तर प्राकार के कपिशीर्ष मणिमय, मध्यमप्राकार के रत्नमय तथा बाह्यप्राकार के हेममय होते हैं। तीनों प्राकारों में चार-चार द्वार होते हैं। वे सर्वरत्नमय होते हैं। उन सबमें सर्व रत्नमय पताका, ध्वजा और तोरण होते हैं। वे आश्चर्यकारी होते हैं। (वैमानिक, ज्योतिष्क तथा भवनपति देव अपने-अपने प्राकारों में ये सारे कार्य निष्पन्न करते हैं।) ११८०.चेइदुम पेढ छंदग, आसण छत्तं च चामराओ य।
जं चऽन्नं करणिज्ज, करिति तं वाणमंतरिया।। चैत्यद्रुम, पीठ, देवच्छंद, सिंहासन, छत्र, चामर-ये सारे तथा अन्य जो कुछ भी करणीय होता है, वह सारा वानव्यंतरदेव करते हैं। ११८१.साहारण ओसरणे, एवं जस्थिड्डिमं तु ओसरई।
एक्को च्चिय तं सव्वं, करेइ भयणा उ इयरेसिं॥ साधारण अर्थात् जहां अनेक देवेन्द्र आते हैं वहां समवसरण में पूर्वोक्तनियोग-विधि है। जहां कोई ऋद्धिमान्इन्द्र सामानिक आदि आता है वहां वही अकेला प्राकार आदि सारा करता है। जहां इन्द्र आदि महर्द्धिक देव नहीं आते वहां भवनपति आदि समवसरण की रचना करते भी हैं और नहीं भी करते। इसमें भजना है। ११८२.सूरुदय पच्छिमाए, ओगाहिंतीए पुव्वओ एति।
दोहिं पउमेहिं पाया, मग्गेण य होति सत्तऽन्ने॥ सूर्योदय के समय अर्थात् प्रथम पौरुषी में तथा अपराह्न में अंतिम पौरुषी का अवगाहन हो जाने पर भगवान् पूर्वद्वार से उस समवसरण में प्रवेश करते हैं। भगवान् देवता द्वारा परिकल्पित दो-दो पद्मों पर पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं। भगवान् के पिछले भाग में सात पद्म होते हैं। ज्यों-ज्यों भगवान आगे बढ़ते हैं, उन सात पद्मों में से पीछे वाले पद्म एक-एक कर आगे आते जाते हैं। भगवान् उन पद्मों पर पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं। १. तीर्थः गणधरः। (वृ. पृ. ३६८) २. वृत्ति में इसका विस्तार इस प्रकार है-केवली पूर्वद्वार से प्रविष्ट होकर भगवान के दक्षिण-पूर्व दिशा में बैठ जाते हैं। उनके पीछे मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी, नौपूर्वी तथा विविधलब्धिसंपन्न मुनि पूर्वदिशा वाले द्वार से प्रवेश कर भगवान् को प्रदक्षिणा और नमस्कार कर, तीर्थ, गणधर और केवलियों को नमस्कार कर केवलियों के पीछे बैठ जाते हैं। शेष मुनि पूर्वद्वार से प्रविष्ट होकर, भगवान् को विधिपूर्वक वंदना कर, उपस्थित सभी मुनियों को नमस्कार कर
११८३.आयाहिण पुव्वमुहो, तिदिसिं पडिरूवया य देवकया।
जेट्ठगणी अन्नो वा, दाहिणपुव्वे अदूरम्मि। भगवान् प्रवेश कर चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा कर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ जाते हैं। शेष तीनों दिशाओं में देवकृत प्रतिरूपक-तीर्थंकर की आकृति धारक तीन मुखों की विकुर्वणा करते हैं। ज्येष्ठ गणधर अथवा अन्य गणधर भगवान् के चरणों में बैठते हैं। वे गणधर पूर्वद्वार से प्रवेश कर दक्षिण-पूर्व दिग्भाग में भगवान् के निकट बैठते हैं। (शेष सारे गणधर ज्येष्ठ गणधर के पार्श्व में बैठते जाते हैं।) ११८४.जे ते देवेहिं कया, तिदिसिं पडिरूवगा जिणवरस्स।
तेसि पि तप्पभावा, तयाणुरूवं हवइ रुवं ।। देवताओं ने तीनों दिशाओं में जिनवर के जो प्रतिरूपक निर्मित किए थे, तीर्थंकर के प्रभाव से उनमें भी तीर्थंकररूप के अनुरूप रूप होता है। ११८५.तित्थाऽइसेससंजय, देवी वेमाणियाण समणीओ।
भवणवइ-वाणमंतर-जोइसियाणं च देवीओ। तीर्थ अर्थात् गणधरों के बैठ जाने पर अतिशायी मुनि बैठते हैं। उनके बाद वैमानिक देवियां, फिर श्रमणियां, फिर भवनपति, वानव्यंतर तथा ज्योतिष्क देवों की देवियां बैठती हैं। ११८६.केवलिणो तिउण जिणं, तित्थपणामं च मग्गओ तस्स।
मणमाई वि नमंता, वयंति सट्ठाण सट्टाणं॥ केवली जिनेश्वरदेव को तीन प्रदक्षिणा कर, तीर्थ को प्रणाम कर, तीर्थ अर्थात प्रथम गणधर तथा अन्य गणधरों के पीछे बैठ जाते हैं। तत्पश्चात् मनःपर्यवज्ञानी आदि अतिशय ज्ञानी मुनि तीर्थ आदि को प्रणाम करते हुए अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं, बैठ जाते हैं। ११८७.भवणवई जोइसिया, बोधव्वा वाणमंतरसुरा य।
वेमाणिया य मणुया, पयाहिणं जं च निस्साए। भवनपति, ज्योतिष्क तथा वानव्यंतर-ये तीनों प्रकार के देव विधिपूर्वक एक दूसरे के पीछे उत्तर-पश्चिम दिग्भाग में खड़े रहते हैं। वैमानिक देव, मनुष्य, स्त्रियां तीर्थंकर की प्रदक्षिणा कर पूर्वदिग्भाग में यथाक्रम खड़े रहते हैं और उन
अतिशयज्ञानियों के पीछे बैठ जाते हैं। वैमानिक देवियां पूर्वद्वार से प्रविष्ट होकर सबको प्रणाम कर, अतिशयज्ञानियों के पीछे खड़ी हो जाती हैं। तदनन्तर साध्वियां भगवान को तथा तीर्थ के सभी साधुओं को नमस्कार कर उन देवियों के पीछे खड़ी हो जाती हैं, बैठती नहीं। भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवलोक की देवियां दक्षिण दिशा से प्रविष्ट होकर तीर्थंकर आदि को वंदना कर दक्षिण-पश्चिम दिगभाग में खड़ी हो जाती हैं।
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