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पहला उद्देशक
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११६९.बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिवें। फल मिलता है, क्या वैसा फल अमात्य आदि की सेवा का
न वि अत्थि न वि अ होही,सज्झायसमं तवोकम्म॥ होता है? हाथी के पैर जैसा क्या कुंथु का पैर होता है? इसी तीर्थंकरों द्वारा दृष्ट बाह्य और आभ्यन्तररूप में विभक्त प्रकार तीर्थंकरों के वचनों की जो महार्थता है, क्या दूसरों के बारह प्रकार के तपःकर्म में स्वाध्याय के समान दूसरा कोई वचनों की वैसी महार्थता होती है? इसलिए तीर्थंकर के पास तपःकर्म न है और न होगा।
जाना ही उचित है। ११७०.जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं। ११७५.कोट्ठाइबुद्धिणो अत्थि संपयं एरिसाणि मा जंप। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमेत्तेण॥
अवि य तहिं वाउलणा, विरयाण वि कोउगाईहिं।। अज्ञानी जीव जिन कर्मों का क्षय अनेक कोटि वर्षों में तब आचार्य ने कहा-शिष्य! आज भी कोष्ठबुद्धि, करता है, उन्हीं कर्मों का क्षय तीन गुप्तियों से गुप्त ज्ञानी पदानुसारीबुद्धि तथा बीजबुद्धि से संपन्न मुनि हैं। इनमें सूत्रार्थ मनुष्य उच्छ्रासमात्र कालमान में कर देता है।
का परिशाटन नहीं होता। इसलिए तुम धूलीदृष्टांत आदि मत ११७१.आय-परसमुत्तारो, आणा वच्छल्ल दीवणा भत्ती। कहो। और यह भी जानो कि भगवान् के पास पढ़ने वाले
होति परदेसियत्ते, अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स॥ मुनियों में भी कौतुक आदि के कारण व्याकुलता होती है। ज्ञानी जीव परदेशकत्व-दूसरों का मार्गदर्शन करता है। (उनमें भी कौतुक अर्थात् समवसरण आदि को देखने की उससे स्वयं का और दूसरे का समुत्तार होता है, उद्धार होता उत्कंठा होती ही है।) है। इससे आज्ञा, वात्सल्य, दीपना और भक्ति-ये कृत्य ११७६.समोसरणे केवइया, रूव पुच्छ वागरण सोयपरिणामे। संपादित होते हैं। तथा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है। ये दाणं च देवमल्ले, मल्लाणयणे उवरि तित्थं। गुण परदेशकत्व के होते हैं।
समवसरण, कितने भूभाग से, रूप, पृच्छा, व्याकरण, ११७२.जिणकप्पिएण पगयं, जिणकाले सो उ केवलीणं वा। श्रोतृपरिणाम, दान, देवमाल्य, मान्यआनयन, उपरि तीर्थ
सो भणइ एव भणितो, कत्थ अहीयं भयंतेहिं।। (यह द्वार गाथा है। इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में)। जिनकल्पिक का प्रसंग है। जिनकल्पिक तीर्थंकर के ११७७.जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ व देवो महिड्डिओ एइ। समय में अथवा केवलज्ञानी के समय में होते हैं। आचार्य के वाउदय पुप्फ बद्दल, पागारतियं च अभिओगा। द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर शिष्य पूछता है-भंते! आपने जिस क्षेत्र में पहले कभी समवसरण की रचना नहीं हुई यह कहां से जाना या पढ़ा?
थी, अथवा जहां महर्द्धिक देव भगवान् को वंदना करने आता ११७३.अंतरमणंतरे वा, इति उदिए धूलिनायमाहंसु। है, वहां नियमतः समवसरण की रचना होती है। (अन्यत्र यह
चिक्खल्लेण य नायं, तम्हा उ वयामि जिणमूलं॥ नियम नहीं है।) इन्द्र के आभियोग्यदेव संवर्तक वायु की
आचार्य ने कहा-'अंतर अर्थात् परंपरा से अथवा अनंतर- विकुर्वणा कर योजनमंडल भूभाग को साफ करते हैं। फिर जिनेश्वरदेव के पास से ही मैंने यह जाना-पढ़ा है।' आचार्य । उदक के बादलों की तथा पुष्प के बादलों की विकुर्वणा कर के इस प्रकार कहने पर शिष्य ने धूलीदृष्टांत तथा चिक्खल- सुरभिगन्धोदक की तथा पुष्पों की वृष्टि करते हैं। फिर वे देव दृष्टांत प्रस्तुत किया और कहा-इसलिए अब मैं जिनेश्वर तीन प्राकारों की रचना करते हैं। देव के पास ही जाता हूं। वहां संपूर्ण श्रुत उपलब्ध हो जाएगा। ११७८.अभिंतर-मज्झ-बहिं, ११७४.पय-पाय-मक्खरेहिं, मत्ता-घोसेहिं वा वि परिहीणं।
विमाण-जोइ-भवणाहिवकयाओ। अवि य रवि-राय-हत्थी, पगास सेवा पया चेव।
पायारा तिन्नि भवे, पुनः शिष्य ने कहा-परंपरा से आनेवाले श्रुत की परिहानि
रयणे कणगे य रयए य॥ इस प्रकार होती है पदों से, पादों से, अक्षरों से, मात्राओं त्रैमानिक देव रत्नमय आभ्यन्तर प्राकार की, ज्योतिष्क से, घोष से तथा बिन्दु से। क्या जैसे रवि का प्रकाश होता देव कनकमय मध्यम प्राकार की तथा भवनाधिपति देव है, वैसा खद्योत का प्रकाश होता है? जैसे राजा की सेवा का रजतमय बाह्य प्राकार की रचना करते हैं। १. धूली दृष्टांत-जैसे एक स्थान पर एकत्रित धूलीपुंज को अन्यत्र ले जाते दूसरे हाथ में जाते हुए, अंतिम मनुष्य तक पहुंचते पहुंचते अत्यल्प
समय वह बिखर-बिखर कर न्यून होता जाता है, इसी प्रकार परंपरा मात्रा में रह जाता है, इसी प्रकार सूत्रार्थ भी न्यून-न्यूनतम होता से आने वाला सूत्रार्थ न्यून ही हस्तगत होता है।
जाता है। जैसे प्रासाद पर लेप करने के लिए चूना या गारा एक हाथ से
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