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११५८. इओ गया इओ गया, मग्गिज्जती न दीसति । अहमेयं वियाणामि, अगडे छूढा अडोलिया ।। ११५९. सुकुमालग! भद्दलया !, रनिं हिंडणसीलया ! | भयं ते नत्थि मंमूला दीहपट्टाओ ते भयं ।। क्षेत्रपाल ने उस गधे को संबोधित कर कहा-'हे गर्दभ ! तुम कभी आगे भागते हो और कभी पीछे। मुझे भी तुम नहीं देख पा रहे हो। मैंने तुम्हारे अभिप्राय को जान लिया है। तुम यवों को खाना चाहते हो (द्वितीयपक्ष में हे गर्दमराज! तुम यव राजा को मारना चाहते हो। यही तुम्हारी अभिलाषा है ।)
इधर-उधर दौड़-धूप कर तुम उसकी खोज कर रहे हो, पर उसको नहीं देख पा रहे हो। मैं यह जानता हूं कि राजकुमारी 'अडोलिका' उसी भूमीगृह में निक्षिप्त है। (मुनि यव कुंभकार की शाला में था। एक उंदर बार- बार बिल से निकलता और भयभीत होकर पुनः भीतर घुस जाता । )
यह देखकर कुंभकार बोला- हे सुकमारक! हे भद्राकृतिवाले! हे रात्री में घूमने वाले ! मेरे निमित्त से तुम्हें कोई भय नहीं होगा। तुम्हारे भय का एकमात्र निमित्त है - दीर्घपृष्ठ अर्थात् सर्प (द्वितीय पक्ष में तीनों आमंत्रण राजा के लिए तथा दीर्घपृष्ठ सचिव के लिए)।'
११६०. सिक्खियव्वं मणूसेणं, अवि जारिसतारिसं । पेच्छ मुद्धसिलोगेहिं जीवियं परिरक्खियं ॥ मनुष्य को ऐसा वैसा सब कुछ सीखना चाहिए। देखो, एक ग्रामीण व्यक्ति के द्वारा कथित श्लोकों ने मेरे जीवन की रक्षा कर दी।
११६१. पुव्वविराहियसचिवे, सामच्छण रत्ति आगमो गुणणा ।
नाओ मि सचिवघायण, खामण गमणं गुरुसगासे ॥ पूर्व विराधित सचिव राजा के पास आ गया। रात्री में राजा और सचिव का परस्पर पर्यालोचन हुआ। उस समय राजा को पूर्वपठित तीनों श्लोकों की स्मृति हो आई। उसने सोचा- मेरे पिता अतिशयज्ञानी हैं। मैं उनके द्वारा जान लिया गया हूं। यह सारा प्रपंच सचिव ने किया था। यह सोचकर राजा ने सचिव को मार डाला और अपने पिता राजर्षि के पास जाकर क्षमायाचना की। राजर्षि गुरु के पास गए और फिर आगम- अध्ययन में लग गए।
११६२. आयहिय परिण्णा भावसंवरो नवनवो अ संवेगो । निक्कंपया तवो निज्जरा य परदेसियत्तं च॥ श्रुत के अध्ययन से ये आठ विशेष गुण निष्पन्न होते हैं१. आत्महित ३. भावसंवर
२. परिज्ञा
१. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५१ ।
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४. नया-नया संवेग
बृहत्कल्पभाष्यम्
७. निर्जरा
५. निष्कम्पता ६. तप ८. परदेशिकत्व (इनका विस्तार अगली गाथाओं में) ११६३.आयहियमजाणंतो, मुज्झति मूढो समादिअति कम्मं ।
कम्मेण तेण जंतू, परीति भवसागरमणंतं ॥ जो श्रुत का अध्ययन नहीं करता वह आत्महित को न जानता हुआ मोहग्रस्त होता है। वह मूढ़ व्यक्ति कर्मों का निबिडबंध करता है। वह उन कर्मों के कारण अनंत भवसागर में परिभ्रमण करता है।
१९६४. आयहियं जाणंतो, अहियनिवित्तीऍ हियपवित्तीए ।
हवइ जतो सो तम्हा, आयहियं आगमेयव्यं ॥ जो आत्महित को जानता है वह अहित की निवृत्ति में और हित की प्रवृत्ति में प्रयत्न करता है इसलिए आत्महित का परिज्ञान करना चाहिए।
१९६५. सझायं जाणतो, पंचिदियसंवुडो तिगुत्तो य
होइ य एकन्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥ स्वाध्याय अर्थात् श्रुत को जानने वाला मुनि पंचेन्द्रियसंवृत, तीन गुप्सियों से गुप्त, एकाग्रमनवाला तथा विनय से समाहित होता है।
१९६६. नाणेण सव्वभावा, नज्जंते जे जहिं जिणक्खाया।
नाणी चरितगुत्तो, भावेण उ संवरो होइ ॥ जो भाव जहां उपयोगी हैं उन भावों का वहां जिनेश्वरदेव ने आख्यान किया है। वे सारे भाव ज्ञान से जाने जाते हैं। इसलिए ज्ञानी चारित्रगुप्त होता है, भाव से संबर होता है। ११६७. जह जह सुभोगाइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं ।
तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ ॥ जैसे-जैसे विशेष रस के अतिरेक से संयुक्त उस अपूर्व श्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे मुनि नए-नए संवेग की श्रद्धा से प्रह्लादित होता है-शुभ भावों में स्थित होकर आनंदित होता है।
११६८. णाणाणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंजमे ठिच्चा
विहरs विसुज्झमाणो, जावज्जीवं पि निक्कंपो॥ उसके फलस्वरूप ज्ञान की जो आज्ञति आदेश है कि ( जाए सद्धाए निक्खतो तमेव अणुपालए-जिस श्रद्धाभाव से निष्क्रमण किया है उसी का जीवनपर्यन्त अनुपालन करे ) - इस आज्ञप्ति के अनुसार मुनि दर्शन, तप, नियम और संयम में स्थित होकर, (कर्ममल से) विशुद्ध होता हुआ यावज्जीवन निष्प्रकम्प रहता हुआ विहरण करता है, संयममार्ग का अनुसरण करता है।
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