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पहला उद्देशक
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११४६.जुत्त विरयस्स सययं, संजमजोगेसु उज्जयमइस्सा
किं मज्झं पढिएणं, भण्णइ सुण ता इमे नाए॥ गुरु शिष्य को ग्रहण शिक्षा के विषय में प्रेरित करते हैं। तब शिष्य कहता है-भदन्त ! मैं प्रवजित हूं, निष्परिग्रह और निरारंभी हूं। मैं प्रव्रज्या में एकाग्रमना होकर धर्मचिन्ता में दृढ़ बनूं-यह मेरी भावना है। समितियों, भावनाओं, गुप्तियों तथा प्रतिलेखन, विनय आदि में युक्त हूं और नाना प्रकार के लोकविरुद्र और लोकोत्तरविरुद्ध प्रवृत्तियों से प्रतिनिवृत्त हूं। संयमयोगों में उद्यमशील हूं। तो फिर मेरा पढ़ने से क्या प्रयोजन? तब आचार्य बोले-वत्स! तुम इन दो दृष्टांतों को सुनो। ११४७.जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे।
सुट्ट वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ॥ ११४८.जं सिलिपई निदायति, तं लाएति चलणेहिं भूमीए।
एवमसंजमपंके, चरणसई लाइ अमुणितो॥ जैसे हाथी स्नान करने के पश्चात् अपने शरीर पर प्रचुर धूली डाल देता है वैसे ही (संयम में) प्रचुर उद्यम करने वाला अज्ञानी कर्ममल का उपचय करता है।
जैसे श्लीपदी (हाथीपगा) व्यक्ति जितने प्रमाण में खेत का निदान करता है उससे अधिक धान्य को अपने पैरों से रौंद डालता है। इसी प्रकार श्रुतपाठ के बिना चारित्ररूपी सस्य को असंयमीरूपी पंक में डाल देता है। ११४९.भणइ जहा रोगत्तो, पुच्छति वेज्जं न संघियं पढइ।
___ इय कम्मामयवेज्जे, पुच्छिय तुज्झे करिस्सामि॥
शिष्य कहता है-भंते! रोग से पीड़ित पुरुष वैद्य को पूछता है, वह वैद्यकसंहिता को नहीं पढ़ता। इसी प्रकार आप कर्मरोग के चिकित्सक हैं। मैं आपको पूछकर ही सारी क्रियाएं करूंगा। मुझे श्रुत पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। ११५०. भण्णइ न सो सयं चिय, करेति किरियं अपुच्छिउँ रोगी।
नायव्वे अहिगारो, तुम पि नाउं तहा कुणसु॥
आचार्य ने कहा-यह सच है कि रोगी वैद्य को पूछे बिना क्रिया-रोगोपचार नहीं करता, फिर भी रोगोपचार की विधि जानने का वह अधिकारी है, जिससे कि उसे वैद्य को बारबार पूछना न पड़े। उसी प्रकार तुम भी श्रुत के आधार पर। षट्कायरक्षणविधि को जानकर वैसा करो जिससे कि गुरु को बार-बार पूछना न पड़े। ११५१.दूरे तस्स तिगिच्छी, आउरपुच्छा उ जुज्जए तेणं।
सारेहिंति सहीणा, गुरुमादि जतो नऽहिज्जामि॥ शिष्य बोला-भंते! उस रोगी का चिकित्सक दूरवर्ती १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५०।
है, इसलिए रोगोपचार का परिज्ञान उसके लिए आवश्यक है। परंतु गुरु, उपाध्याय आदि मेरे निकट ही हैं, वे मेरी सारणा-वारणा स्वयं करेंगे। इसलिए मैं श्रुताध्ययन नहीं करूंगा। ११५२.आगाढकारणेहिं, गुरुमादी ते जया न होहिंति।
तइया कहं नु काहिसि, जहा व सो अंधलो थेरो॥ आचार्य ने कहा-आगाढ़ कारणों से वे गुरु आदि तुम्हारे निकट नहीं भी हो सकते हैं। तब तुम क्या, कैसे करोगे? जैसे वह अंध स्थविर कुछ भी नहीं कर सका। ११५३.अट्ठ सुय थेर अंधल्लगत्तणं अत्थि मे बहू अच्छी। ___ अप्पद्दण्ण पलित्ते, डहणं अपसत्थग पसत्थे।
एक स्थविर के आठ पुत्र थे। कालान्तर में वह अंधा हो गया। पुत्रों ने आंख की चिकित्सा के लिए कहा-स्थविर बोला-मेरे पुत्रों की बहुत आंखें हैं। उनसे मेरा कार्य चलता रहेगा। एक बार घर में आग लग गई। सभी पुत्र आदि ('अप्पदन्न' आत्मरक्षणपराः) अपनी रक्षा के लिए घर से निकल गए। अंधा स्थविर घर में जलकर भस्म हो गया। यह अप्रशस्त दृष्टांत है। प्रशस्त का कथन पहले किया जा चुका है।' ११५४.मा एवमसग्गाहं, गिण्हसु सुयं तइयचक्लु।
किं वा तुमेऽनिलसुतो, न स्सुयपुव्वो जवो राया। आचार्य ने पुनः कहा-वत्स! असद् आग्रह-मिथ्या आग्रह मत करो। श्रुत तीसरा नेत्र है। उसे तुम ग्रहण करो। क्या तुमने अनिलनरेन्द्र के पुत्र यव राजा की बात नहीं सुनी है? ११५५.जव राय दीहपट्ठो, सचिवो पुत्तो य गद्दभो तस्स।
धूता अडोलिया गहभेण छूढा य अगडम्मि। ११५६.पव्वयणं च नरिंदे, पुणरागमऽडोलिखेलणं चेडा।
जवपत्थणं खरस्सा, उवस्सओ फरुससालाए। राजा का नाम यव था। दीर्घपृष्ठ उसका सचिव था। राजकुमार का नाम था गर्दभ। राज पुत्री का नाम अडोलिका था। गदर्भ का उसके प्रति तीव्रानुराग हो गया। यह जानकर राजा यव ने दोनों को अगड-भूमिगृह में डाल दिया। वे वहां भोग भोगने लगे। नरेन्द्र प्रवजित हो गया। पुत्रस्नेह के कारण वह बार-बार नगर में आता था। एक बार उसने बालकों को अडोलिका से खेलते देखा। वहां एक गर्दभ यवों को खाना चाहता था। मुनि यव कुंभकार की शालारूप उपाश्रय में रहा। (इस कथानक का विस्तार आगे।) ११५७.आधावसी पधावसी, ममं वा वि निरिक्खसी।
लक्खिओ ते मया भावो, जवं पत्थेसि गहभा!॥
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