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________________ - १२२ बृहत्कल्पभाष्यम् ११३६.जह सूरस्स पभावं, द8 वरकमलपोंडरीयाई। भावना से विपरिणत हो जाते हैं और वे संसाररूपी समुद्र के बुज्झंति उदयकाले, तत्थ उ कुमुदा न बुज्झंति॥ सम्मुख प्रक्षिप्त होते हैं। ११३७.एवं भवसिद्धीया, जिणवरसूरस्सुतिप्पभावेणं। ११४१.एसेव य नूण कमो, वेरग्गगओ न रोयए तं च। बुज्झंति भवियकमला, अभवियकुमुदा न बुज्झंति॥ दुहतो य निरणुकंपा, सुणि-पयस-तरच्छअट्टवमा।। जैसे सूर्य के प्रभा-पटल को देखकर श्रेष्ठकमलपुंडरिक वे आगंतुक व्यक्ति यह सोचते हैं-जैनधर्म में यही क्रम हैप्रभात में विकसित हो जाते हैं, किन्तु उसी सरोवर में स्थित (पहले श्रावक धर्म, पश्चात् यतिधर्म अथवा पहले सम्यक्त्व कुमुद विकस्वर नहीं होते। इसी प्रकार भवसिद्धिक जीव पश्चात् देशविरति आदि)। उस वैराग्य से उपगूढ़ व्यक्ति को जिनेश्वर देवरूपी सूर्य की श्रुति-आगम के प्रभाव से वह रुचिकर नहीं लगता। इस प्रकार धर्म का अविधि से भव्यरूपी कमल विकस्वर होते हैं, किन्तु अभव्यरूपीकुमुद कथन करने वाला दोनों पर अनुकंपारहित होता है छह अवबुद्ध नहीं होते। जीवनिकायों पर तथा उस व्यक्ति पर। यहां शुनिका, पायस ११३८.पुव्वं तु होइ कहओ, पच्छा धम्मो उ उक्कमो किन्नु। तथा तरक्षअस्थि की उपमा वाच्य है। तेण वि पुव्वं धम्मो, सुओ उ तम्हा कमो ऐसो॥ (जैसे वीरशुनिका अयथार्थ से खिन्न होकर यथार्थ को भी पहले धर्मोपदेष्टा होता है, पश्चात् होता है धर्म। ग्रहण नहीं करती, वैसे ही वह प्रव्रज्या जिघृक्षु व्यक्ति पहले पूर्वश्लोक में व्युत्क्रम हुआ है-पहले धर्म और फिर श्राद्धधर्म को सुनकर, फिर प्रयत्नपूर्वक कथित यतिधर्म को धर्मोपदेष्टा का कथन है। यह क्यों ? आचार्य कहते हैं-उस भी स्वीकार करना नहीं चाहता। जैसे किसी समागत धर्मकथक ने भी पहले गुरु के पास धर्म सुना है, अतः यह प्राघूर्णक को भरपेट वासी भक्त दे देने के पश्चात् वह पायस क्रम ही है, उत्क्रम नहीं। भी खाना नहीं चाहता तथा जैसे तरक्ष-व्याघ्रविशेष पहले ११३९.जइधम्मं अकहेत्ता, अणु दुविधं सम्म मंसविरई वा। हड्डियों के भोजन से तृप्त हो जाने पर मांस खाने के प्रति अणुवासए कहिंते, चउजमला कालगा चउरो॥ लालायित नहीं होता, वैसे ही वह मनुष्य भी श्रावकधर्म से जो मिथ्यादृष्टि है, अनुपासक है, वह धर्म सुनना चाहे तो तृप्त होकर यतिधर्म की ओर आकृष्ट नहीं होता।) उसे पहले मुनिधर्म बतलाना चाहिए। यति धर्म न कहकर ११४२.तित्थाणुसज्जणाए, आयहियाए परं समुद्धरति। यदि उसे अणुव्रत की बात बतलाते हैं तो तप और काल से मग्गप्पभावणाए, जइधम्मकहा अओ पढमं ।। गुरु चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि वह यति धर्म ग्रहण यतिधर्म का कथन करने वाला तीर्थ के स्थायित्व में करना न चाहे तो दो प्रकार का श्राद्धधर्म बतलाना चाहिए। सहायक बनता है। वह आत्महित के लिए होती है। दूसरे यदि श्राद्धधर्म न बतलाकर सम्यग्दर्शन की बात कहता है को यतिधर्म में प्रस्थापित करने पर उसका उद्धार होता तब भी तप से गुरु और काल से लघु चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। उससे मार्ग (सम्यग्दर्शन आदि के) की प्रभावना आता है। सम्यग्दर्शन का कथन किए बिना यदि मद्य-मांस होती है। इसलिए सबसे पहले यतिधर्म का कथन करना की विरति कहते हैं तब भी तप और काल से लघु चतुर्गुरु चाहिए।' का प्रायश्चित्त है। यदि सम्यग्दर्शन भी अंगीकार नहीं कर ११४३.पव्वइयस्स य सिक्खा, गयोहाय सिलीपती य दिळंतो। सकता तब यदि मद्य-मांस की विरति कहे बिना यदि उसको तइयं च आउरम्मी, चउत्थगं अंधले थेरे।। ऐहिक और आमुष्मिक फल का कथन करते हैं तब भी तप प्रवजित व्यक्ति को शिक्षा देनी चाहिए। शिक्षा के दो और काल से लघु चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। 'चउजमला प्रकार हैं-ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा। इस विषयक कालगा चउरो'-चार यमल अर्थात् तपःकाल युगल, चार चार दृष्टांत हैं-(१) गजस्नान (२) श्लीपदी (३) आतुर तथा कालक अर्थात चार चतुर्गुरुक। (४) अंधस्थविर। (इसका विस्तार आगे की गाथाओं में।) ११४०.जीवा अब्भुटुिंता, अविहीकहणाइ रंजिया संता। ११४४.पव्वइओऽहं समणो, निक्खित्तपरिग्गहो निरारंभो। अभिसंछूढा होती, संसारमहन्नवं तेणं॥ इति दिक्खियमेकमणो, धम्मधुराए दढो होमि॥ वे समागत व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए तत्पर थे, ११४५.समितीसु भावणासु य, गत्ती-पडिलेह-विणयमाईसु। किन्तु उस मुनि के अविधिकथन से रंजित होकर संयम लोगविरुद्धेसु य बहुविहेसु लोगुत्तरेसुं च॥ १. जो अर्हत् धर्म का अनुपासक है उसको पहले यतिधर्म स्वीकार करने की बात कहे। वह उसे स्वीकार करने में समर्थ न हो तो श्रावकधर्म की बात कहे, फिर सम्यग्दर्शन की और वह भी स्वीकार न कर सके तो मद्य-मांस विरति के विषय में कहे। यह अनुपासक के समक्ष धर्मकथन की विधि है। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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