________________
पहला उद्देशक ११२२.सच्चित्तादी दव्वे, सच्चित्तो दुपयमायगो तिविहो।
मीसो देसचियादी, अच्चित्तो होइमो तत्थ॥ द्रव्यपरिक्षेप के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। सचित्त के तीन भेद हैं-द्विपद, चतुष्पद और अपद। मिश्र के भी ये ही तीन प्रकार हैं। 'देसेचियादी'-एक देश में उपचित है सचेतन और एक देश में उपचित है अचेतन। यह मिश्रपरिक्षेप है। अचित्त परिक्षेप यह होता है११२३.पासाणिट्टग-मट्टिय-खोड-कडग-कंटिगा भवे दव्वे।
खाइय-सर-नइ-गड्डा-पव्वय-दुग्गाणि खेत्तम्मि॥ पाषाणमय प्राकार (द्वारिका में), ईंटों का प्राकार (आनन्दपुर में), मिट्टी का प्राकार (सुमनोमुख नगर में), खोड अर्थात् काष्ठमय प्राकार, बांसों का प्राकार, कांटों का प्राकार-ये सारे द्रव्यप्राकार हैं। खातिका, तालाब, गर्त्ता, नदी, पर्वत, दुर्ग-ये जिस क्षेत्र को वेष्टित करते हैं यह क्षेत्र परिक्षेप है। ११२४.वासारत्ते अइपाणियं ति गिम्हे अपाणियं नच्चा।
कालेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति॥ वर्षारात्र में अतिपानी के कारण, ग्रीष्म ऋतु में अपानी के कारण जिस नगर आदि का अन्य राजा परिहार कर देते हैं, वह कालपरिक्षिप्त कहलाता है। ११२५.नच्चा नरवइणो सत्त-सार-बुद्धी-परक्कमविसेसे।
भावेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति॥ जिस राजा के पास सत्त्व-धैर्य, सार-बाह्य और आभ्यन्तर (बाह्य-सेना आदि, आभ्यन्तर-स्वर्ण आदि), बुद्धि और पराक्रम विशेष होता है-वह नगर भावपरिक्षिप्त होता है। ऐसे नगर का दूसरे राजा परिहार कर देते हैं। ११२६.नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य। ____ मासस्स परूवणया, पगयं पुण कालमासेणं॥
मास शब्द के छह निक्षेप हैं-नाममास, स्थापनामास, द्रव्यमास, क्षेत्रमास, कालमास और भावमास। प्रस्तुत सूत्र में कालमास प्रकृत है। ११२७.दव्वे भवितो निव्वत्तिओ उ खेत्तं तु जम्मि वण्णणया।
कालो जहि वणिज्जइ, नक्खत्तादी व पंचविहो॥ जो माषरूप में उत्पन्न होगा अथवा मूलोत्तरगुणनिवर्तित माष है वह द्रव्यमाष है। क्षेत्रमास-जिस क्षेत्र में मासकल्प की वर्णना की जाती है अथवा माष का वपन किया जाता है। कालमास-जिस काल में मास कल्प का वर्णन किया जाता है। अथवा माष का वपन किया जाता है। अथवा श्रावण आदि मास। अथवा नक्षत्र आदि पांच प्रकार का कालमास।
११२८.नक्खत्तो खलु मासो, सत्तावीसं हवंतऽहोरत्ता।
भागा य एक्कवीसं, सत्तट्टिकरण छेएणं ।। ११२९.अउणत्तीसं चंदो, बिसट्टि भागा य हुंति बत्तीसा।
कम्मो तीसइदिवसो, तीसा अद्धं च आइच्चो।। ११३०.अभिवड्डि इक्वतीसा, चउवीसं भागसयं च तिगहीणं।
भावे मूलाइजुओ, पगयं पुण कम्ममासेणं॥ नक्षत्रमास २७२१ अहोरात्र प्रमाण का होता है। चान्द्रमास २९३२ अहोरात्र का होता है। कर्ममास (ऋतुमास) तीस अहोरात्र का तथा आदित्यमास साढ़े बीस अहोरात्र का होता है। अभिनवर्धित ३१.२४ अहोरात्र का होता है। भावमाष मूलादि युक्त होता है, अर्थात् माष का मूल, कन्द, स्कंध आदि रूप होता है। प्रस्तुत प्रसंग में कर्ममास (ऋतुमास) का अधिकार है। ११३१.जिण सुद्ध अहालंदे, गच्छे मासो तहेव अज्जाणं।
एएसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए। जिनकल्पिक, शुद्धपरिहारिक, यथालंदकल्पिक, गच्छवासी-स्थविरकल्पिक तथा आर्यिकाओं का मासकल्प संबंधी जो विधि है, नानात्व है, उसका मैं क्रमशः प्रतिपादन करूंगा। ११३२.पव्वज्जा सिक्खापयमत्थग्गहणं च अनियओ वासो।
निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव।। जिनकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षापद, अर्थग्रहण, अनियतवास, निष्पत्ति, विहार तथा उनकी सामाचारी और स्थिति। (इसका विस्तार आगे की गाथाओं में।) ११३३.सोच्चाऽभिसमेच्चा वा, पव्वज्जा अभिसमागमो तत्थ।
जाइस्सरणाईओ, सनिमित्तमनिमित्तओ वा वि॥ तीर्थंकर, गणधर आदि की देशना को सुनकर, अथवा अपनी सन्मति से अवबोध प्राप्त कर अथवा सनिमित्त या अनिमित्त से होने वाली जातिस्मृति की अभिसमागमता-प्राप्ति से वे प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। ११३४.सोच्चा उ होइ धम्म, स केरिसो केण वा कहेयव्यो।
के तस्स गुणा वुत्ता, दोसा अणुवायकहणाए। धर्म को सुनने से प्रव्रज्या-प्राप्ति होती है। शिष्य पूछता है-वह धर्म कैसा है? उसका कथन कौन कर सकता है? उसके उपाय-कथन से कौन से गुण हैं ? उसके अनुपायकथन से कौन से दोष हैं ? ११३५.संसारदुक्खमहणो, विबोहओ भवियपुंडरीयाणं।
धम्मो जिणपन्नत्तो, पगप्पजइणा कहेयव्वो।। सांसारिक दुःखों से मुक्त करने वाला, भव्यरूपी श्वेतकमलों को विकस्वर करनेवाला जिनप्रज्ञप्त धर्म ही धर्म है। उसके कथन का अधिकारी है-प्रकल्पसूत्रार्थ का धारक मुनि।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org