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भित्तिसंस्थान से लेकर काश्यपसंस्थान पर्यन्त सभी संस्थानों को स्वीकार करता है।
११११. निम्मा घर व भूमिय, तइओ दुहणा वि जाव पावंति। नाणिस्साहिपइस्स व जं संठाणं तु सहस्स ॥ तीसरा ऋजुसूत्रनय मूलपादवाले गृह, वृति या स्तूप का संस्थान तथा आकाश में ऊपर उठा हुआ मुद्गर जितने आकाशतल को प्राप्त करता है, उस सीमा तक का संस्थान मानता है। ज्ञानी अधिपति का अथवा ग्रामाधिपति का जो संस्थान है वह शब्दनय का विषय है।
१११२. चउदसविहो पुण भवे, भूतग्गामो तिहा उ आतोज्जो ।
सोतादिदियगामो, तिविहा पुरिसा पिउग्गामो ॥ भूतग्राम (प्राणियों का समूह) के चौवह भेद हैं।" आतोधग्राम के तीन भेद हैं- षड्जग्राम, मध्यमग्राम तथा गंधारग्राम । श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियों का समुदयइन्द्रियग्राम | पितृग्राम है तीन प्रकार के पुरुष - तिर्यग्योनिक पुरुष, मनुष्ययोनिक पुरुष और देवयोनिकपुरुष । १११३. तिरिया- उमर नरइत्थी, माउग्गामं पि तिविहमिच्छति ।
नाणाइतिगं भावे, जओ व तेसिं समुप्पत्ती ॥ पूर्व आचार्य तीन प्रकार का मातृग्राम बतलाते हैंतिर्यक्योनिकस्त्री, देवयोनिकस्त्री और मनुष्ययोनिकस्त्री । ज्ञान, दर्शन और चारित्र का समवाय - यह है भावग्राम अथवा ज्ञान आदि का उत्पत्ति स्थल भावग्राम है। १११४. तित्यगरा जिण चउदस, दस भिन्ने संविग्ग तह असंविग्गे ।
सारुविय वय दंसण, पडिमाओ भावगामो उ। तीर्थंकर, जिन ( केवली), चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, असंपूर्णवशपूर्वघर, संविग्न ( उद्यतविहारी), असंविग्न, सारूपिक अणुव्रतधारीश्रावक दर्शनश्रावक (अविरत सम्यग्दृष्टि), प्रतिमा- ये सारे भावग्राम माने जाते हैं। १११५. चरण करणसंपन्ना, परीसहपरायगा
महाभागा ।
तित्थगरा भगवंतो, भावेण उ एस गामविही॥ तीर्थंकर भगवान् चरण-करण से संपन्न, परीषहों को जितने वाले, महाभाग भावग्राम होते हैं उनको देखते ही भव्यजीवों में बोधिबीज उत्पन्न हो जाता है। यह भावग्राम की विधि वक्तव्य है।
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१११६.जा सम्मभावियाओ, पडिमा इयरा न भावगामो उ । भावो जड़ नत्थि तहिं नणु कारण कन्नडवयारो ॥ १. एगिदिय सहमियरा, सन्निगरपणिदिया य सवितिचऊ। पज्जत्ताऽपज्जत्ता, भएणं चउदस
ग्गामा ॥
(वृ. पृ. ३४८) २. सारूपिक- श्वेतवस्त्रधारी, क्षुर से मुंडित सिर, भिक्षाटन से जीवन चलाने वाले अथवा पछाकड़ा विशेष । (वृ. पृ. ३४९)
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बृहत्कल्पभाष्यम्
जो सम्यग्दृष्टिपरिगृहीत प्रतिमा है, वह भावग्राम है। इतर अर्थात् जो मिध्यादृष्टिपरिगृहीत प्रतिमा है, वह भावयाम नहीं है। शिष्य ने पूछा- जहां भाव-ज्ञान आदि नहीं है वहां भावग्राम कैसे हो सकता है? आचार्य कहते हैं कारण में कार्य का उपचार मानकर भावग्राम कहा जा सकता है, जैसेप्रतिमा को देखकर आर्द्रककुमार को संबोधि प्राप्त हुई थी। १११७. एवं खु भावगामो, णिण्हगमाई वि जह मयं तुब्भं ।
अमवच्चं को णु हु, अव्विवरीतो वदिज्जाहिं || शिष्य ने पूछा- 'कारणे कार्योपचार के माध्यम से आपने प्रतिमा को भावग्राम माना है तो निह्नवों को भी भावग्राम मानना होगा। आचार्य कहते हैं यह तुम्हारा अवचन है, असमंजस प्रलाप है, क्योंकि सम्यन्तत्त्ववेदी ऐसा विपरीत कथन नहीं करता ।
१११८. जइ विहु सम्मुप्पाओ, कासह दगुण निण्हए होज्जा ।
मिच्छत्तहयसईया तहावि ते वज्ञणिज्जा उ॥ यद्यपि निहवों को देखकर किसी के मन में दर्शनसम्यक्त्व की उत्पत्ति हो सकती है, फिर भी उन निवाँ की सर्वज्ञवचनों की स्मृति मिथ्यात्व से दूषित होती है अतः वे वर्जनीय होते हैं।
१११९. आहार- उवहि-सयणा-ऽऽसणोवभोगेसु जो उ पाउग्गो ।
एयं वयंति गामं, जेणऽहिगारो इहं सत्ते ॥ शिष्य ने पूछा- प्रस्तुत प्रसंग में किस प्रकार के ग्राम का अधिकार है? आचार्य कहते है-आहार, उपधि, शयन, आसन- इनमें जो उपभोग के लिए कल्प्य हैं, वे ग्राम कहे जाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में इनका ही अधिकार है। ११२०. एमेव य नगरादी, नेवव्वा होति आणुपुब्बीए ।
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जं जं जुज्जइ जत्थ उ, जोएअव्वं तगं तत्थ ॥ जिस प्रकार 'ग्राम' पद की प्ररूपणा की है, उसी प्रकार नगर आदि की प्ररूपणा भी अनुपूर्वी से करनी चाहिए। जहांजहां नगर आदि पदों में द्रव्य स्थापना आदि की योजना करनी होती है, वहां-वहां उनकी योजना करनी चाहिए। ११२१. नामं ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य।
एसो उ परिक्खेवे निक्खेवो छब्बिहो होइ ॥ परिक्षेप पद का यह छह प्रकार का निक्षेप है-नामपरिक्षेप, स्थापनापरिक्षेप, द्रव्यपरिक्षेप, क्षेत्रपरिक्षेप, कालपरिक्षेप और भावपरिक्षेप ।
३. शिष्य ने पूछा- तीर्थंकर आदि रत्नत्रयी से समन्वित होने के कारण भावग्राम हैं किन्तु असंविग्न आदि भावग्राम कैसे ? आचार्य कहते हैं- ये सभी यथावत्प्ररूपणा करते हैं और अनेक व्यक्ति इनसे रत्नत्रयी प्राप्त करते हैं। अतः ये भी भावग्राम कहे जा सकते हैं। (वृ. पृ. ३४९)
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