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पहला उद्देशक
११०७. पासट्टिए पडाली, वलभी चउकोण इंसि दीहा उ
चउकोणेसु जइ दुमा, हवंति अक्खाडतो तम्हा ॥ ११०८. बडागारठिएहिं रुयगो पुण वेढिओ तरुवरेहिं । तिकोणो कासवओ, छुरधरगं कासवं विती ॥ ग्राम-संस्थान के बारह प्रकार हैं-
१. उत्तानकमल्लकसंस्थित
२. अधोमुखमल्लकसंस्थित ३. सम्पुटकमल्लकसंस्थित ९. वलभीसंस्थित ४. उतानखंडमल्लकसंस्थित १०. अक्षवाटकसंस्थित ५. अधोमुखखंडमल्लकसंस्थित ११. रुचकसंस्थित ६. सम्पुटखंडमल्लकसंस्थित १२. काश्यपसंस्थित १. उत्तानमल्लकसंस्थान जिस ग्राम के मध्यभाग में कूप है, बुद्धि से उसके पूर्व आदि दिशाओं में छेद की परिकल्पना की जाती है। फिर कूप के अधस्तन तल से बुद्धिकृत छेद के द्वारा रज्जुओं को दिशा विदिशाओं में निकालकर घरों के मूलपाद के ऊपर से ग्रहण करते हुए ग्रामपर्यन्तवर्ती वृति तक तिर्यक् विस्तारित किया जाता है, फिर ऊपर अभिमुख होकर ऊंचाई में वे हर्म्यतलों के समीभूत होकर वहां पटहच्छेद से उपरत हो जाती हैं। इस आकार वाला उत्तानक मल्लकसंस्थित ग्राम कहलाता है, ऊर्ध्वाभिमुख शराव (सिकोरे) का आकार ऐसा ही होता है।
७. भित्तिसंस्थित ८. पडालिकासंस्थित
२. अधोमुखमल्लकसंस्थान - यह संस्थान भी ऐसा ही है । विशेष यह है कि जिस गांव के मध्य बेवकुल है या बहुत ऊंचा वृक्ष है, उस देवकुल आदि के शिखर से रज्जुओं को उतारकर तिरछे में वृति पर्यन्त ले जाया जाता है। वहां से अधोमुख हो घरों के पादमूल तक ग्रहण कर पटहच्छेद से उपरत होने पर यह संस्थान बनता है।
३. सम्पुटकमल्लकसंस्थान जिस ग्राम के मध्यभाग में कूप है, उसके ऊपर ऊंचा वृक्ष है तो उस कूप के अधस्तल से रज्जु निकालकर घरों के मूलपाद के नीचे-नीचे ले जाकर वृति पर्यन्त ले जाया जाता है। फिर ऊर्ध्व अभिमुख होकर हर्म्यतन की समश्रेणीभूत रज्जु को वृक्ष शिखर से उतारकर वृति पर्यन्त ले जाते हैं। फिर अधोमुखी होकर उसे कूपसंबंधी रज्जु के अग्रभाग के साथ संघटित किया जाता है। यह सम्पुटकमल्लकसंस्थान है।
४-६. उत्तान - अधोमुख- सम्पुटखंडमल्लकसंस्थान- जिस ग्राम के बाहर एक दिशा में कूप है, उस एक दिशा को छोड़कर शेष सात दिशाओं में रज्जु को निकालकर उसे तिर्यक् वृति तक ले जाकर ऊपर से हर्म्यतल तक लाकर पटहच्छेद से उपरत होने पर उत्तानखंडमल्लकसंस्थान बनता
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है। अधोमुखखंडमल्लक और सम्पुटखंडमल्लकसंस्थान भी ऐसा ही होता है। इन दोनों में विशेष इतना है कि पहले में एक दिशा में देवकुल या ऊंचा वृक्ष होता है, दूसरे में एक दिशा में कूप और उसके ऊपर वृक्ष होता है।
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७. भित्तिसंस्थान - जिस गांव की पूर्व और पश्चिम दिशा में समश्रेणी में व्यवस्थित वृक्ष हों, वह भित्तिसंस्थित ग्राम है। ८. पडालिकासंस्थान - जिस गांव की पूर्व और पश्चिम दिशा में वृक्ष समश्रेणी में तथा पार्श्वभाग में वृक्षयुगल समश्रेणी में अवस्थित हों, वह पडालिकासंस्थित ग्राम है।
९. वलभीसंस्थान जिस गांव के चारों कोणों में ईषद दीर्घ वृक्ष व्यवस्थित हों, वह वलभीसंस्थित ग्राम है।
१०. अक्षवाटकसंस्थान - 'अक्षवाट ' - मल्लों के युद्ध का अभ्यासस्थल जैसे समचतुरस्र होता है, वैसे ही जिस गांव के चारों कोणों में वृक्ष होते हैं, उससे यह चतुर्विदिशावर्ती वृक्षों के द्वारा समचतुरस्र रूप में जाना जाता है, वह अक्षवाटकसंस्थित ग्राम है।
११. रुचकसंस्थान- यद्यपि गांव स्वयं सम नहीं होता, तथा जो रुचकवलयपर्वत की भांति वृत्ताकार में व्यवस्थित वृक्षों से वेष्टित है, वह रुचकसंस्थित ग्राम है।
१२. काश्यपसंस्थान जो गांव त्रिकोण रूप में निविष्ट है. वह काश्यपसंस्थित ग्राम है। अथवा जिस गांव के बाहर एक ओर दो तथा दूसरी ओर एक इस प्रकार तीन वृक्ष त्रिकोण रूप में स्थित हैं, वह काश्यपसंस्थित ग्राम है। नापित के शुरगृह को काश्यप कहा जाता है वह त्रिकोण होता है।
११०९. पढमेत्थ पडहछेदं, आ कासव कडग - कोट्टिमं तइओ । नाणि आहिपतिं वा सहनया तिन्नि इच्छंति ॥ प्रथम अर्थात नैगमनय पटहच्छेवलक्षण वाला संस्थान मानना है, संग्रहनय का भी यही अभिमत है। व्यवहारनय भित्तिसंस्थान से काश्यपसंस्थान पर्यन्त मानता है। तीसरा ऋजुसूजनय कटकतृणादिमय, कोट्टिम-पाषाणादिचन्द्रभूमिक वाले संस्थान को मानता है। तीनों शब्दनय ज्ञानी अधिपति को संस्थान रूप में मानते हैं।
१११०. संगहियमसंगहिओ, संगहिओ तिविह मल्लयं नियमा भित्तादी जा कासवो, असंगहो बेति संठाणं ॥ नैगमनय दो प्रकार का होता है- सांग्रहिक तथा असांग्रहिक । सांगहिक का अर्थ है- सामान्यग्राही । सांग्रहिक नैगमनय नियमतः तीन प्रकार का संस्थान मानता हे उत्तानक, अवगमुख तथा संपुटाकार संपूर्ण अथवा खंड मल्लक के पटहच्छेवलक्षण संस्थान असांग्रहिक नैगगनय
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