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________________ ==बृहत्कल्पभाष्यम् १०९३. नाणादिसागयाणं, भिज्जति पुडा उ जत्थ भंडाणं। वहीं तक ग्राम है। विशुद्धतम नय कहता है-जहां तक ग्राम पुडभेयणं तगं संकरो य केसिंचि कायव्वो॥ का उदपान कूप है वहां तक ग्राम है। दूसरा कहता है जहां जहां नाना दिशाओं से आगत भांडों के पुट विक्रय के तक अव्यक्त अर्थात् बालक खेलने के लिए जाते हैं वहां तक लिए खोले जाते हैं, वह स्थान पुटभेदन कहलाता है। कुछेक ग्राम है। विशुद्धतर नय कहता है-छोटे बालक रेंगते आचार्यों के मतानुसार यहां 'संकर' पाठ अधिक होना हुए जितने भूभाग का अतिक्रमण करते हैं, उतना भूभाग है चाहिए। 'संकर' का अर्थ है- ग्राम, खेट, आश्रम आदि। ग्राम। १०९४. नामं ठवणागामो, दव्वग्गामो य भूतगामो य।। १०९९. एवं विसुद्धनिगमस्स वइपरिक्खेवपरिवुडो गामो। __आउन्जिदियगामो, पिउ-माऊ-भावगामो य॥ ववहारस्स वि एवं, संगहो जहिं गामसमवाओ॥ ग्राम शब्द के नौ निक्षेप हैं-नामग्राम, स्थापनाग्राम, इस प्रकार नैगमनय की अनेकविध परिभाषाओं को द्रव्यग्राम, भूतग्राम, आतोद्यग्राम, इन्द्रियग्राम, पितृग्राम, छोड़कर विशुद्ध नैगमनय कहता है कि जितना भूभाग बाड़ के मातृग्राम, भावग्राम। परिक्षेप से परिवृत है उतने भूभाग को ग्राम कहना चाहिए। १०९५ जीवा-ऽजीवसमुदओ, गामो को कं नओ कहं इच्छे। व्यवहारनय के अनुसार भी यही परिभाषा है। संग्रहनय के आदिणयोऽणेगविहो, तिविकप्पो अंतिमनओ उ॥ अनुसार जहां ग्रामवासियों का एकत्र मिलन होता है, वहां कौनसा नय किस ग्राम को द्रव्यग्राम कहता है? जो जीव तक ग्राम मानना चाहिए। और अजीव का समुदय है, वह द्रव्यग्राम है। आदिनय अर्थात् ११००. जं वा पढम काउं, सेसग गामो निविस्सइ स गामो। नैगमनय के अनेक प्रकार हैं। अंतिम नय है शब्दनय। उसके तं देउलं सभा वा मज्झिम गोट्ठो पवा वा वि॥ तीन विकल्प हैं-शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। जिस स्थान को प्रथम मानकर, आदि मानकर गांव का १०९६. गावो तणाति सीमा, आरामुदपाण चेडरूवाणि।। निवेश होता है, फिर चाहे वह देवकुल हो, सभास्थान हो, वाडी य वाणमंतर, उग्गह तत्तो य आहिपती॥ ग्राममध्यवर्ती हो, गोष्ठ हो अथवा प्रपा हो, वह ग्राम (अनेकविध नैगमनय के अनुसार ग्राम शब्द की व्याख्या) कहलाता है। गाय, तृणहारक, सीमा, आराम, उदपान, चेडरूप, वाटि, ११०१. उज्जुसुयस्स निओओ, पत्तेयघरं तु होइ एक्केक्कं । वानमन्तर, अवग्रह और अधिपति। (इसकी विस्तृत व्याख्या उद्वेति वसति व वसेण जस्स सद्दस्स सो गामो॥ अगली गाथाओं में।) नियोग का अर्थ है-ग्राम। ऋजुसूत्र नय के अनुसार १०९७. गावो वयंति दूरं, पि जं तु तण-कट्ठहारगादीया। प्रत्येक आवासीय गृह एक-एक ग्राम है। शब्दनय के अनुसार सूरुट्टिए गता एंति अत्थमंते ततो गामो॥ जिस किसी के वश से ग्राम उजड़ जाता है अथवा पुनः (प्रथम नय कहता है-गायें जितने भूभाग में चरने के लिए बसता है, वह ग्राम का अधिपति ग्राम शब्द द्वारा व्यवहृत जाती हैं, वह सारा भूभाग ग्राम कहलाता है। तब विशुद्ध होता है। नैगम नय कहता है-) ११०२. तस्सेव उ गामस्सा, को कं संठाणमिच्छति नओ उ। गायें तो बहुत दूर-दूर तक चरने के लिए चली जाती हैं, तत्थ इमे संठाणा, हवंति खलु मल्लगादीया॥ वह सारा भूभाग ग्राम नहीं कहलाता। सूर्योदय होने पर उसी ग्राम का कौनसा नय कैसा संस्थान चाहता है, तृणहारक, काष्ठहारक आदि तृण या काष्ठ के लिए जितनी इसका विवेचन है। ग्राम के मल्लक आदि संस्थान होते हैं। दूर जाते हैं और सूर्यास्त के समय लौट आते हैं, उतना ११०३. उत्ताणग ओमंथिय, संपुडए खंडमल्लए तिविहे। भूभाग होता है ग्राम। भित्ती पडालि वलभी, अक्खाडग रुयग कासवए। १०९८. परिसीम पि वयंति हु,सुद्धतरो भणति जा ससीमा तु। ११०४. मज्झे गामस्सऽगडो, बुद्धिच्छेदा ततो उ रज्जूओ। उज्जाण अवत्ता वा, उक्कीलंता उ सुद्धयरो॥ निक्खम्म मूलपादे, गिण्हतीओ वई पत्ता॥ शुद्धतर नैगमनय कहता है-यह भी उचित नहीं है, ११०५. ओमंथिए वि एवं, देउल रुक्खो व जस्स मज्झम्मि। क्योंकि तृणहारक आदि घास के लिए परसीमा में भी जा कूवस्सुवरिं रुक्खो, अह संपुडमल्लओ नाम। सकते हैं। वहां तक ग्राम नहीं होता। स्वसीमा तक ही ग्राम ११०६. जइ कूवाई पासम्मि होति तो खंउमल्लओ होइ। होता है। विशुद्धतर नय कहता है जहां तक ग्राम का उद्यान है पुव्वावररुक्खेहिं, समसेढीहिं भवे भित्ती॥ १. गामो त्ति वा निओउ ति वा एगहूँ। (विशेषचूर्णि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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