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पहला उद्देशक
आधाकर्म संबंधी दो आदेश हैं-मूलगणोपघाती आधाकर्म और उत्तरगुणोपघाती आधाकर्म। आधाकर्म में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। प्रत्येक वनस्पति में पहले और दूसरे भंग में चतुर्लघु। इस प्रकार प्रायश्चित्त के आधार पर आधाकर्म गुरुक है। व्रतों की अपेक्षा से प्रथम-द्वितीय भंग गुरुक हैं, क्योंकि उनमें प्राणातिपात व्रत का लोप होता है। अथवा आधाकर्म उत्तरगुणों का घात करने के कारण लघुतर होता है। ये दो आदेश हैं। इन दोनों आदेशों में यदि आधाकर्म प्राप्त न होता हो तो प्रत्येक वनस्पति द्वितीयभंग में ली जा सकती है। उसके अभाव में 'कलि' अर्थात् प्रथम भंग में ग्रहण करे। उसके अभाव में अनन्त वनस्पति 'द्वापर' द्वितीय भंग में और उसके अभाव में ‘कलि' प्रथम भंग में ली जा सकती है। अनन्तकाय भी प्रथम भंग में प्राप्त न हो तो यतनायुक्त होकर जहां अल्पतर कर्मबंध हो वह ग्रहण करे। १०८५. एमेव संजईण वि, विहि अविही नवरि तत्थ नाणत्तं।
सव्वत्थ वि सग्गामे, परगामे भावओ वि भए॥ इसी प्रकार श्रमणियों के विषय में जानना चाहिए। विशेष है-विधिभिन्न अविधिभिन्न प्रलंब। विधिभिन्न प्रलंब स्वग्राम या परग्राम-सर्वत्र लिया जा सकता है। पहले छठे भंग, पश्चात् पांचवां-चौथा। उसके अभाव में भावतः अविधिभिन्न प्रलंब का भी सेवन किया जा सकता है।
१०८७. तेसु सपरिग्गहेसुं, खेत्तेसुं साहुविरहिएसुं वा।
किच्चिरकालं कप्पड़, वसिउं अहवा विकप्पो उ॥ साधुओं द्वारा परिगृहीत अथवा साधु विरहित क्षेत्रों में कितने काल तक साधु-साध्वियों को रहना कल्पता है यह प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य है। विकल्पतः यह भी सूत्र का संबंध है। १०८८. आदिपदं निद्देसे, वा उ विभासा समुच्चये वा वि।
गम्मो गमणिज्जो वा, कराण गसए व बुद्धादी। सूत्रगत आदिपद (से गामंसि वा) 'से' शब्द निर्देश अर्थात् उपन्यास के अर्थ में तथा 'वा' शब्द स्वगत अनेक भेदों अथवा समुच्चय का वाचक है। ग्राम का अर्थ है जहां १८ प्रकार के 'कर' गमनीय होते हैं, लगते हैं अथवा ग्राम का अर्थ है वह स्थान जो बुद्धि आदि गुणों को ग्रस लेता है, नष्ट कर देता है। १०८९. नत्थेत्थ करो नगरं, खेडं पुण होइ धूलिपागारं।
कब्बडगं तु कुनगरं, मडंबगं सव्वतो छिन्नं ।। जहां किसी प्रकार का 'कर' नहीं लगता वह नकर-नगर कहलाता है। जो धूली के प्रकार से युक्त होता है वह खेट और कुनगर कर्बट कहलाता है। सर्वतः छिन्न अर्थात् जिसके चारों दिशाओं में ढाई गव्यूति तक कोई ग्राम न हो वह मडंब कहलाता है। १०९०. जलपट्टणं च थलपट्टणं च इति पट्टणं भवे दुविहं।
अयमाइ आगरा खलु, दोणमुहं जल-थलपहेणं। पत्तन के दो प्रकार हैं-जलपत्तन और स्थलपत्तन। लोह आदि के आकर कहलाते हैं। जो जलमार्ग और स्थलमार्गदोनों से जुड़ा हुआ हो वह द्रोणमुख है। जैसे भृगुकच्छ, ताम्रलिप्ती आदि। १०९१. निगम नेगमवग्गो, वसइ जहिं रायहाणि जहिं राया।
___तावसमाई आसम, निवेसो सत्थाइजत्ता वा॥
जहां वणिक्वर्ग रहता है वह है निगम, जहां राजा रहता है वह है राजधानी, तापसों का आश्रम कहलाता है। निवेश वह है जहां सार्थ आवासित होता है अथवा यात्रायित लोग जहां ठहरते हैं। १०९२. संवाहो संवोढुं, वसति जहिं पव्वयाइविसमेसु।
घोसो उ गोउलं अंसिया उ गामद्धमाईया।। कृषक अन्यत्र खेती कर तथा वणिक् वर्ग व्यापार कर अपना माल पर्वत आदि विषम स्थानों में रखकर स्वयं जहां रहता है उस वसति को संबोध कहा जाता है। घोष का अर्थ है-गोकुल। अंशिका उस स्थान का नाम है जहां गांव का आधाभाग, एक तिहाई भाग, चौथा भाग रहता है, वह ग्रामांश।
मासकप्प-पदं
से गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा रायहाणिंसि वा आसमंसि वा निवेसंसि वा संबाहंसि वा घोसंसि वा अंसियंसि वा पडभेयणसि संकरंसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु एगं मासं वत्थए।
(सूत्र ६) १०८६. वुत्तो खलु आहारो, इयाणि वसहीविहिं तु वन्नेइ।
सो वा कत्थुवभुज्जइ, आहारो एस संबंधो।। पूर्वसूत्र में आहार विषयक विधि निरूपित की गई है। प्रस्तुत सूत्र में वसतिविधि का वर्णन किया गया है। अथवा आहार का उपभोग कहां किया जाए-यह भी इस सूत्र का संबंध है।
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