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=बृहत्कल्पभाष्यम्
इसी प्रकार श्रमणियों की निर्गमनविधि कहनी चाहिए। १०७९. पणगाइ मासपत्तो, ताहे निम्मीसुवक्खडं भिन्नं । वृद्ध और तरुण श्रमणियों में यदि तरुण श्रमणियां
निम्मीस उवक्खडियं, गिण्हति ताहे ततियभंगे। निष्प्रत्यपाय हों तो वे वहां से प्रस्थान करें, वृद्ध साध्वियां यतनापूर्वक गवेषणा करते हुए पंचक प्रायश्चित्त वाले वहीं रहें। इसी प्रकार जुंगित और अजुंगित में अजुंगित वहां स्थान से प्रारंभ कर जब भिन्नमास प्रायश्चित्त का अतिक्रमण से प्रस्थान कर दें। पाद आदि से जुंगित वहीं रहें। यदि तरुण कर लघुमास प्राप्त होता है तब द्रव्यतः भावतः भिन्न निर्मिश्रश्रमणियों का प्रस्थान सप्रत्यपाय हो तो वे वहीं रहें और वृद्ध प्रलंब जो उपस्कृत है तथा शुद्धोदन और मिश्रोपस्कृत का साध्वियां प्रस्थान कर दें।
अध्यवपूरक है, उसे स्वग्राम-परग्राम में लिया जा सकता है। १०७४.एवं तेसि ठियाणं, पत्तेगं वा वि अहव मिस्साणं। जब वह चरमभंग में प्राप्त न हो तो निर्मिश्र-उपस्कृत ही
ओमम्मि असंथरणे, इमा उ जयणा जहिं पगयं। तीसरे भंग में लिया जा सकता है। इस प्रकार आचार्य आदि का उस क्षेत्र में प्रत्येक वर्ग के १०८०. एमेव पउलियाऽपउलिए य चरिम-तइया भवे भंगा। रूप में स्थित होने अथवा मिश्ररूप में द्विवर्ग, त्रिवर्ग,
ओसहि-फलमाईसुं, जं चाऽऽईन्नं तगं नेयं ।। चतुर्वर्ग-स्थित होने पर अवमकाल में असंस्तरण होने पर इसी प्रकार पक्व और अपक्व का तीसरा और चौथा भंग इस प्रकृत प्रलंबसूत्रगत यतना का पालन करे।
होता है। औषधी-धान्य आदि तथा फल आदि जो आचीर्ण हैं १०७५.ओयण-मीसे-निम्मीसुवक्खडे पक्क-आम-पत्तेगे। अर्थात् पूर्वाचार्यों द्वारा गृहीत हैं, वे लिए जा सकते हैं।
साधारण सग्गामे, परगामे भावओ वि भए। १०८१. सगला-ऽसगलाइन्ने,मीसोवक्खडिय नत्थि हाणी उ। ओदन, मिश्रोपस्कृत, निर्मिश्रोपस्कृत, पक्व, कच्चा,
जइउं अमिस्सगहणं, चरिमदुए जं अणाइन्न।। प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति-इनको यथाक्रम पहले पूर्वाचार्यों द्वारा गृहीत सकल अथवा असकल, मिश्रित स्वग्राम में और पश्चात् परग्राम में ग्रहण करे।
अथवा निर्मिश्रित उपस्कृत धान्य, जिनमें पंचक परिहानि का १०७६.बत्तीसाई जा एक्क घास खवणं व न वि य से हाणी। प्रायश्चित्त नहीं है। पूर्वाचार्यों द्वारा अनाचीर्ण है तीसरे तथा
आवासएसु अच्छउ, जा छम्मासे न य पलंबे॥ चौथे भंगवर्ती अमिश्र का ग्रहण करे। प्रमाणप्राप्त आहार का परिमाण है-ओदन के बत्तीस १०८२. जइ ताव पिहुगमाई, सत्थोवहया वि होतऽणाइण्णा। कवल। यदि एक-दो-चार कवल न्यून लेने पर भी आवश्यक
किं पुण असत्थुवहया, पेसी पव्वायसरडू य॥ योगों में कोई हानि न होती हो तो वे मुनि उस स्थिति में वहां यदि पृथुक (पके हुए ब्रीहि भ्राष्ट्र में भुने जाने पर उनके रहे। प्रलंब का ग्रहण न करें। यदि एक भी कवल न मिले तो दो फाड़ हो जाते हैं, उनका छिलका निकल जाता है, वे उपवास, बेला, तेला यावत् छह मास तक तपस्या कर पृथुक कहलाते हैं।) आदि शस्त्रोपहत होने पर भी अनाचीर्ण समाधि में रहे। परंतु प्रलंब ग्रहण न करे।
होते हैं तो जो अशस्त्रोपहत प्रलंबों की लंबी फांकें तथा १०७७.जावइयं वा लब्भइ, सग्गामे सुद्ध सेस परगामे। प्रम्लान वृन्त वाले सरडू (बिन गुठली पड़े फल) कैसे आचीर्ण
मीसं च उवक्खडियं, सुद्धज्झवपूरगं गेण्हे॥ हो सकते हैं? जितना शुद्ध ओदन स्वग्राम में प्राप्त हो वह ग्रहण करे १०८३. साधारणे वि एवं, मीसा-ऽमीसे वि होति भंगाओ। और यदि वह पर्याप्त न हो तो शेष परग्राम से ले। यदि
पणगादी गुरुपत्तो, सव्वविसोहीय जय ताहे॥ शुद्धोदन स्वग्राम और परग्राम में पर्याप्त न मिले तो प्रलंबों से साधारण-अनन्त वनस्पति के विषय में प्रत्येक वनस्पति मिश्रित-उपस्कृत, जो शुद्धोदन का अध्यवपूरक होता है, उसे की भांति मिश्रोपस्कृत, निर्मिश्रोपस्कृत में चौथा और तीसरा ग्रहण करे।
भंग होता है। तीसरे भंग में जब निर्मिश्रोपस्कृत प्राप्त नहीं १०७८.तत्थ वि पढमं जं मीसुवक्खडं दव्व-भावतो भिन्नं। होता तब पंचक परिहानि से गुरुमास प्राप्त हो तब साधारण
दव्वाभिन्नविमिस्सं, तस्सऽसति उवक्खडं ताहे॥ निर्मिश्रोपस्कृत ग्रहण करता है। यदि तीसरे भंग से भी प्राप्त उसमें भी सबसे पहले द्रव्यतः तथा भावतः भिन्न प्रलंबों न हो तो सभी विशोधिकोटि के ग्रहण करने में प्रयत्न करना से मिश्र और उपस्कृत का ग्रहण करे। उसके अभाव चाहिए। में द्रव्यतः अभिन्न, प्रलंबों से विमिश्र तथा उपस्कृत का १०८४. कम्मे आदेसदुगं, मूलुत्तरे ताहे बि कलि पत्तेगे। ग्रहण करे।
दावर कली अणंते, ताहे जयणाए जुत्तस्स। १. पक्व अर्थात अग्नि से संस्कारित। अपक्व का अर्थ है अग्नि या इंधन के बिना भी जो निर्जीव हो गया है।
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