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________________ पहला उद्देशक ११५ अविधिभिन्न प्रलंबप्राप्ति के स्थान में रहते हैं। वहां इस यतना १०७०.आयरिय-वसभ-अभिसेग-भिक्खुणो का पालन करना चाहिए। पेल्ल लंभे न य देति। १०६५.भिन्नाणि देह भित्तूण वा वि असति पुरतो सि भिंदंति। गुरुगा दोहि विसिट्ठा, ठाविति ताहे समणी, ता चेव जयंति तेसऽसती।। चउगुरुगाइ व्व जा लहुगो।। गृहस्थ प्रलंब लाते हैं तब मुनि उनको कहे-हम अभिन्न वास्तव्य अथवा आगंतुक मुनि चार प्रकार के होते प्रलंब नहीं लेते। उनको भिन्न कर हमें दो। यदि गृहस्थ ऐसा हैं-आचार्य, वृषभ, अभिषेक तथा भिक्षु। वास्तव्य अथवा न करे और भिन्न प्रलंब न मिले तो पूरे प्रलंब ग्रहण कर, आगंतुक श्रमणियां भी चार प्रकार की होती हैं-प्रवर्तिनी, गृहस्थों के समक्ष ही उनके टुकड़े कर ले। वहां के गृहस्थ यह गणावच्छेदिनी, अभिषेका और भिक्षुणी। आचार्य आदि द्वारा जान जाते हैं कि श्रमण भिन्न प्रलंब ही ग्रहण करते हैं। ऐसे परिगृहीत क्षेत्र में यदि अन्य आचार्य आदि आ जाते हैं और भावित क्षेत्र में साध्वियों को स्थापित करते हैं। उन मुनियों के उस क्षेत्र में अवकाश भी है और भक्त-पान की उपलब्धि भी अभाव में अथवा उनके अन्यत्र व्याप्त हो जाने पर वहां जो है, इस स्थिति में यदि वास्तव्य आचार्य आदि मनाही करते स्थविरा श्रमणी हैं वह इसी प्रकार प्रयत्न करती है। हैं अथवा आने वाले आचार्य आदि बलात् वहां ठहर जाते हैं १०६६.भिन्नासति वेलातिक्कमे व गेण्हंति थेरिया भिन्ने।। तो दोनों को तप और काल से गुरु चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त दारे भित्तु अतिंति व, ठाणासति भिंदती गणिणी॥ आता है। अन्य मत के अनुसार चतुर्लघु का भी विधान है। विधिभिन्न की अप्राप्ति होने पर तथा वेलातिक्रम के भय से उसमें काल और तप से विभिन्न विकल्प हैं। स्थविरा साध्वी अभिन्न अथवा अविधिभिन्न प्रलंब ग्रहण कर १०७१.एमेव य भयणा वी, सोलसिया एक्कमेक्क पक्खम्मि। लेती है और तरुण साध्वी विधिभिन्न ग्रहण करती है। उभयम्मि वि नायव्वा, पेल्लमदेंते व जं पावे॥ उपाश्रय के द्वार पर आकर स्थविरा साध्वी अभिन्न प्रलंबों इसी प्रकार जिस गण में केवल एक-एक पक्ष ही होता है को तोड़कर उपाश्रय में प्रवेश करती है। यदि बाहर स्थान न अर्थात् केवल संयतपक्ष अथवा केवल संयतीपक्ष ही होता है हो तो स्थविरा साध्वी सारे प्रलंब गणिनी को सौंप देती है तो वहां प्रत्येक पक्ष की षोडशिका भजना-भंगरचना करनी और गणिनी उनके टुकड़े करती है। चाहिए। पूर्व गाथा में संयतों की संयतों के साथ चारणिका में १०६७.कक्खंतरुक्खवेगच्छियाइसू मा हु णूमए तरुणी। प्राप्त सोलह भंग बतलाए हैं। प्रस्तुत गाथा के अनुसार तो भिन्नं छुभति पडिग्गहेसु न य दिज्जए सयलं॥ संयतियों प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और भिक्षुणीतरुणी श्रमणियां कक्षान्तर में, उक्ख पहने हुए वस्त्र के से संबंधित सोलह भंग होते हैं। यहां 'उभय' शब्द से उभय एक छोर में अथवा वैकक्षिकी-श्रमणियों के उपकरण गणाधिपति का ग्रहण किया गया है। उनसे संबंधित भी यही विशेष में अभिन्न प्रलंब को न छुपा ले, इसलिए उन्हें वह नहीं भंगरचना होती है। पूर्ववत् बलात् लेने अथवा न देने पर दिया जाता। भिक्षाग्रहणकाल में उनके पात्रों में भिन्न प्रलंब प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा आत्म-संयम-विराधना से डाला जाता है, पूरा अथवा अविधिभिन्न प्रलंब नहीं दिया संबंधित जो प्रायश्चित्त आता है, वह भी उसे वहन करना जाता। होता है। १०६८.एवं एसा जयणा, अपरिग्गहिएसु होइ खेत्तेसु। १०७२. चउवग्गो वि हु अच्छउ, असंथराऽऽगंतुगा य वच्चंतु। तिविहेहिं परिग्गएिह, इमा उ जयणा तहिं होइ॥ . वत्थव्वा व असंथरे, मोत्तु गिलाणस्स संघाडं। इस प्रकार यह यतना अपरिगृहीत क्षेत्रों में करनी चाहिए। जहां ये चार वर्ग-वास्तव्य साधु और साध्वियां तथा त्रिविध अर्थात् संयत, संयती तथा तदुभय-इनसे परिगृहीत आगंतुक साधु और साध्वियां-एक ही क्षेत्र में रहते हैं और क्षेत्र विषयक यह यतना है। वहां चारों का संस्तरण नहीं होता हो तो आंगतुक वहां से १०६९.पुवोगहिए खेत्ते, तिविहेण गणेण जइ गणो तिविहो। चले जाएं। अथवा असंस्तरण की स्थिति में वास्तव्य वर्ग एज्जाहि तयं खेत्तं, ओमे जयणा तहिं का णू॥ विहार कर दे। किन्तु यदि कोई ग्लान हो और वह वास्तव्य विविध गण (संयत, संयती तथा तदुभय) द्वारा पूर्व वर्ग से अथवा आगंतुक वर्ग से संबंधित हो तो, वह ग्लान परिगृहीत क्षेत्र में यदि तीन प्रकार का गण और आ जाए तो संघाटक के साथ वहीं रहे। क्या समागत गण को वास्तव्यगण द्वारा अवग्रह दिए जाने १०७३.एमेव संजईणं, वुड्डी-तरुणीण जुंगितकमाई। पर क्या यतना है? पायादिविगल तरुणी, य अच्छए बुडिओ पेसे॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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