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ही दोष प्राप्त होते हैं जो अभिन्न प्रलंब के विषय में कहे गए हैं। अथवा वे दोष विशेषतर होते हैं, जैसे- भुक्तभोगिनी प्रव्रजित वे श्रमणियां विकुर्वणायुक्त अंगादानसदृश उस प्रलंब को देखकर अधिक दोषों से ग्रस्त हो जाती हैं।
१०५७ विहिभिन्नं पिन कप्पर, लहुओ मासो उ दोस आणाई। तं कप्पती न कप्पर, निरत्थगं कारणं किं तं ॥ विधिभिन्न प्रलंब का ग्रहण भी नहीं कल्पता । ग्रहण करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। शिष्य ने कहा- सूत्र में इसका ग्रहण अनुज्ञात है। आचार्य ने कहा - फिर भी वह नहीं कल्पता । शिष्य ने पूछा- क्या सूत्र निरर्थक है? आचार्य कहते हैं नहीं, यह सूत्र कारणिक है। शिष्य ने पुनः पूछा- कारण क्या है ? १०५८. गेलन्नऽद्धाणोमे, तिविहं पुण कारणं गेलने पुव्वत्तं, अद्धाणुवरिं संक्षेप में ये तीन प्रकार के कारण हैं ग्लानत्व, मार्गगमन तथा अवमौदर्य । ग्लानत्व की व्याख्या पूर्व (गा. १०२७) में की जा चुकी है। मार्ग-गमन विषयक कथन आगे किया जाएगा। अवमौदर्य की व्याख्या यह है१०५९. निग्गंथीणं भिन्नं, निग्गंथाणं च भिन्नभिन्नं तु ।
समासेणं । ओमे ॥
इर्म
जह कप्पइ दोहं पी, तमहं बोच्छं समासेणं ॥ दोनों वर्गों - श्रमण और श्रमणी के लिए जो प्रलंब ग्रहण का कल्प है वह संक्षेप में मैं कहूंगा। सामान्यतः श्रमणियों के लिए भिन्न प्रलंब और श्रमणों के लिए भिन्न अथवा अभिन्न प्रलंब ग्रहण करने का नियम है। १०६०. ओमम्मि तोसलीए, दोण्ह वि वम्माण दोसु खेत्तेसु ।
जयणद्रियाण गहणं, भिन्नभिन्नं व जयणाए ॥ एक बार अवमौदर्य के समय में साधु-साध्वी तोसली देश में आकर स्थित हुए। दोनों वर्ग दो पृथक्-पृथक् क्षेत्र में यतनापूर्वक अवस्थित हुए यतनापूर्वक मित्र अथवा अभिन्न प्रलंब ग्रहण करना उनको कल्पता है। १०६१. आणुन जंगल देसे, वासेण विणा वि तोसलिम्गणं ।
पायं च तत्थ वासति पउरपलंबो उ अन्नो वि ।। देश के दो प्रकार है-अनूप अर्थात् जलबहुल और जंगल अर्थात् निर्जल तोसली देश में वर्षा के बिना भी सस्य की निष्पत्ति होती है। पर अत्यधिक वर्षा के कारण सस्य विनष्ट हो जाता है अतः प्रलंबों का उपभोग अधिक होता है। इसीलिए तोसली का ग्रहण किया गया है। अन्यत्र भी यही विधि है।
१. सहिष्णु वह होता है जो इन्द्रियनिग्रह में समर्थ है, श्रमणियों के प्रायोग्य क्षेत्र, वस्त्र, पात्र आदि के उत्पादन में सशक्त है।
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बृहत्कल्पभाष्यम्
१०६२. पुच्छ सहु-भीयपरिसे, चउभंगे पढमए अणुन्नाओ । सेस तिए नाणुन्ना, गुरुगा परियट्टणे जं च ॥ शिष्य ने पूछा- भंते! आपने कहा कि श्रमण श्रमणी - दोनों वर्ग भिन्न-भिन्न प्रदेश में रहें। ऐसी स्थिति में उनकी प्रवृत्तियों की देखरेख कैसे हो सकती है? क्या श्रमणियों का परिवर्तन करना चाहिए या नहीं? आचार्य ने कहा- ऐसा कोई निश्चित नियम नहीं है कि परिवर्तन करना ही चाहिए। परन्तु यदि परिवर्तन करना आवश्यक हो तो वैसा परिवर्तन आचार्य कर सकता है जो सहिष्णु और भीतपरिषद् हो । यहां सहिष्णु और मीलपरिषद् इन दो पदों की चतुभंगी होती है
१. सहिष्णु तथा भीतपरिषद् ।
२. सहिष्णु परंतु भीतपरिषद् नहीं । ३. असहिष्णु परंतु भीतपरिषद् । ४. असहिष्णु और अभीतपरिषद् ।
इन चार भंगों में प्रथम भंग अनुज्ञात है। शेष भंग अनुज्ञात नहीं है। यदि इन भंगों में वर्तमान आचार्य श्रमणियों का परिवर्तन करते हैं तो वे चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। तथा साध्वियां स्वच्छंदता से जो कुछ करती हैं उसका प्रायश्चित्त भी उन्हें ही प्राप्त होता है।
१०६३. जइ पुण पव्वावेती, जावज्जीवाए ताउ पालेह अन्नासति कप्पे वि हु, गुरुगा जं निज्जरा बिउला ॥ सामान्यतः साध्वियों (बहिनों) को यत्र तत्र प्रव्रज्या नहीं वी जा सकती। यदि उन्हें प्रवज्या दी जाती है तो ये यावज्जीवन उसका पालन करती हैं। यदि प्रथम भंगवती प्रव्राजक आचार्य जिनकल्प स्वीकार करना चाहते हों तो वे प्रब्रजित साध्वी को योग्य वतपिक को समर्पित कर जिनकल्प स्वीकार करे। अन्य वर्त्तापक के अभाव में यदि जिनकल्प स्वीकार करते हैं तो चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जिनकल्पी मुनि के जो निर्जरा होती है, उससे भी विपुल निर्जरा होती है उस श्रमणी की परिपालना में। १०६४.उभयगणी पेहेउं, जहिं सुद्धं तत्थ संजती णेति । असती व जहिं भिन्ना, अभिन्ने अविही इमा जयणा ॥ उभयगणी अर्थात् साधु-साध्वी- इन दो वर्गों के आचार्य अवमौदर्य आदि के समय जहां शुद्ध भिक्षा की प्राप्ति होती है, वहां श्रमणियों को स्थापित करते हैं प्रलंबमिश्रित आहार की प्राप्ति के अभाव में विधिभिन्न प्रलंबप्राप्ति के स्थान में साध्वियों को स्थापित करते हैं और स्वयं पुनः अभिन्न अथवा भीतपरिषद् वह होता है जिसके भय से कोई भी साधु-साध्वी अक्रिया करने का साहस नहीं कर सकता। (वृ. पृ. ३३२)
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