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________________ पहला उद्देशक के ग्रहण का प्रतिषेध श्रमणियों के लिए ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा १०५२.कसिणाऽविहिभिन्नम्मि य, के लिए और श्रमणों के लिए अतिरिक्त उपधिदोष के गुरुगा भुत्ताण होइ सइकरणं। परिहार के लिए किया गया है। अतः श्रमण और श्रमणियों के इयरासि कोउगाई, ब्रह्मव्रत की रक्षा के लिए पृथक् पृथक् सूत्रों की रचना की घिप्पंते जं च उड्डाहो॥ गई है। कृत्स्न-अभिन्न तथा अविधिभिन्न प्रलंब ग्रहण करने पर १०४९.नत्थि अनिदाणओ होइ उब्भवो तेण परिहर निदाणं।। श्रमणियों को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। वह भुक्तते पुण तुल्ला-ऽतुल्ला, मोहनिदाणा दुपक्खे वि॥ भोगिनी श्रमणियों के स्मृति का हेतु बनता है तथा निदान (कारण) के बिना मोह का उद्भव नहीं होता।' अभुक्तभोगिनी श्रमणियों के लिए कौतुक का हेतु बनता है। इसलिए निदान का परिहार करना चाहिए। दोनों पक्षों-स्त्री- प्रलंब ग्रहण करने से उनका उड्डाह होता है। देखने वाले पुरुष में मोहोद्भव के कारण तुल्य या अतुल्य दोनों प्रकार कहते हैं-निश्चित ही ये श्रमणियां पादकर्म करेंगी। के होते हैं। १०५३.जइ ताव पलंबाणं, सहत्थणुन्नाण एरिसो फासो। १०५०.रस-गंधा तहिं तुल्ला, सहाई सेस भय दुपक्खे वि। किं पुण गाढालिंगण, इयरम्मि उ निद्दओच्छुद्धे॥ सरिसे वि होइ दोसो, किं पुण ता विसम वत्थुम्मि॥ श्रमणी पादकर्म करके सोचती है यदि अपने हाथ से स्त्री और पुरुष के मोहोद्भव में रस और गंध तुल्य होते प्रेरित प्रलंब का इस प्रकार का स्पर्श होता है तो गाढ़ हैं। शेष शब्द, रूप और स्पर्श की दोनों पक्षों में भजना है। आलिंगन के पश्चात् निर्दयतापूर्वक प्रबलता से स्त्री-योनि में पुरुष में पुरुषसंबंधी शब्द, रूप और स्पर्श से मोहोद्रेक होता प्रक्षिस पुरुष के अंगादान का स्पर्श कैसा होता होगा? भी है और नहीं भी होता। इसी प्रकार स्त्री में भी स्त्री संबंधी १०५४.पडिगमणमन्नतित्थिग, सिद्धे संजय सलिंग हत्थे य। वेहाणस ओहाणे एमेव अभुत्तभोगी वि।। शब्द, रूप और स्पर्श से मोहोद्रेक होता भी है और नहीं भी __ ऐसा सोचने वाली श्रमणी पार्श्वस्थों से समागत हो तो होता। किन्तु पुरुष में स्त्रीसंबंधी शब्द, रूप और स्पर्श वह प्रतिसेवना के लिए उन्हीं के पास जाती है। अथवा से तथा स्त्री में पुरुषसंबंधी शब्द, रूप और स्पर्श से अन्यतीर्थिक, सिद्धपुत्र अथवा संयतों के साथ प्रतिसेवना निश्चित ही मोहोद्रेक होता है, तीव्र होता है। अतः सदृश करने का प्रयत्न करती है। ऐसा स्वलिंग में स्थित होकर स्पर्श आदि में भी दोष होता है तो विसदृश वस्तु की तो बात करती है अथवा वह बार-बार हस्तकर्म करती है। स्वप्रवृत्ति ही क्या? से खिन्न होकर वह फांसी लगाकर मर सकती है। संयम१०५१.चीयत्त कक्कडी कोउ कंटक विसप्प समिय सत्थे य। जीवन से पलायन कर सकती है। यह सारा भुक्तभोगिनी पुणरवि निवेस फाडण, किमु समणि निरोह भुत्तितरा।। श्रमणी के लिए कहा गया है। इसी प्रकार अभुक्तभोगिनी के एक रानी को ककड़ी बहुत प्रिय थी। एक व्यक्ति प्रतिदिन लिए भी है। ककड़ी लाकर देता था। एक दिन पुरुषलिंगसदृश ककड़ी को १०५५.भिन्नस्स परूवणया, उज्जुत तह चक्कली विसमकोट्टे। देखकर रानी के मन में कुतूहल उत्पन्न हुआ कि इसके द्वारा ते चेव अविहिभिन्ने, अभिन्ने जे वन्निया दोसा ।। प्रतिसेवना करूं। उसने ककड़ी को पांव के बांध कर असंयमदोष के निवर्तन के लिए अविधिभिन्न तथा प्रतिसेवना करना प्रारंभ किया। उसकी योनि में ककड़ी का विधिभिन्न की प्ररूपणा करनी चाहिए। ऋजुकभिन्न तथा कंटक लग गया। घाव हो गया। योनि फूल गई। वैद्य को चक्कलिकाभिन्न ये दोनों अविधिभिन्न माने जाते हैं। विषमकुट्ट बुलाया। उसने आकर आटे को गूंथा। शस्त्र के द्वारा उसको अर्थात् ऐसे छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए जाते हैं, जिनको पुनः योनि में उसको प्रविष्ट किया। अन्दर जो फोड़ा हो गया था, जोड़ा नहीं जा सकता-यह विधिभिन्न माना जाता है। उसको फोड़ डाला। तब पीब के साथ कांटा भी निकल गया। अविधिभिन्न में वे ही दोष होते हैं जो अभिन्न में वर्णित हैं। रानी स्वस्थ हो गई। १०५६.कद्वेण व सुत्तेण व, संदाणिते अविहिभिन्ने ते चेव। यदि रानी के भी वैसा कौतुक उत्पन्न हो गया तो सदा सविसेसतर व्व भवे, वेउव्वियभुत्तइत्थीणं॥ निरोध करने वाली भुक्तभोगी और अभुक्तभोगी श्रमणियों का अविधिभिन्न प्रलंब के टुकड़ों को काष्ठ की शलाका से तो कहना ही क्या? अथवा सूत्र से बांधकर पूर्व आकार में स्थापित करने पर वे १.शब्दरूपरसगन्धस्पर्शात्मकं कारणं प्रतीत्य पुरुषवेदादि मोहनीयमुदयमासादयति। (वृ. पृ. ३२८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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